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________________ परिनिव्वुयमुणिदेहं भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई। दठूण भावमङ्गलपरिणामो होइ पाएण॥५८॥ [संस्कृतच्छाया:- यथा मङ्गलाभिधानं सिद्धं विजयं जिनेन्द्रनाम च। श्रुत्वा प्रेक्ष्य च जिनप्रतिमालक्षणादीनि॥ परिनिर्वृतमुनिदेहं भव्ययतिजनं सुवर्णमाल्यादि। दृष्ट्वा भावमङ्गलपरिणामो भवति प्रायेण॥] यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः, तद्यथेत्यर्थः। मङ्गलमितिशब्दरूपमभिधानम्, तथा 'सिद्धं' सिद्धाभिधानम्, विजयाभिधानम्, जिनेन्द्रादिनाम च केनचिदुच्चरितं श्रुत्वा कस्यचित् प्रायेण सम्यग्दर्शनादिको भावमङ्गलपरिणामो भवति, इति नाम्नो भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम्। तथा प्रेक्ष्य चाऽवलोक्य जिनप्रतिमालक्षणादीनि जिनप्रतिमा-स्वस्तिकादीनीत्यर्थः, आदिशब्दादनगारपदादिपरिग्रहः, भावमङ्गलपरिणामो भवतीत्यत्राऽपि संबध्यते। एतत्तु स्थापनाया भावमङ्गलकारणत्वे उदाहरणम्। अथ द्रव्यस्य तत्कारणत्वे दृष्टान्तमाह- परिनिर्वृतो मुक्तिं गतो योऽसौ मुनिस्तद्देहम्, तथा भव्ययतिर्भविष्यद्यतिपर्यायो योऽसौ जनस्तम्, तथा सुवर्णमाल्यादि च दृष्ट्वा प्रायेण सम्यग्दर्शनादिभावमङ्गलपरिणामो भवतीति / अतस्तत्कारणत्वाद् नामादीन्यपि भावमङ्गलानि, इति स्थितम् // इति गाथाद्वयार्थः / / 57 // 58 // // 58 // परिनियमुणिदेहं, भव्वजइजनं सुवन्नमल्लाई। द₹ण भावमङ्गलपरिणामो होइ पाएण॥ [(गाथा-अर्थः) जैसे मङ्गलार्थक सिद्ध, विजय, या जिनेन्द्र-नाम सुनकर, तथा जिनेन्द्रप्रतिमा के लक्षणादि को, एवं निर्वाणप्राप्त मुनि के देह को, भव्य यतियों को या सुवर्ण-माला आदि को देखकर प्रायः भावमङ्गल रूप परिणाम होता (देखा जाता) है।] व्याख्याः - 'यथा' यह पद उदाहरण-प्रदर्शन का सूचक है। तात्पर्य है- उदाहरणार्थ / 'मङ्गल' यानी 'मङ्गल' यह शब्द रूप, उसका अभिधान यानी कथन / सिद्ध यानी 'सिद्ध' (आत्मा) का वाचक, विजय यानी विजय का वाचक (शब्द), जिनेन्द्र (अर्हन्त) आदि का नाम, ये किसी के द्वारा उच्चरित हों, उन्हें सुनकर प्रायः किसी-किसी को सम्यग्दर्शन आदि रूप भावमङ्गलात्मक (आत्मीय) परिणति होती है- यह नाम की भावमङ्गल में कारणता का उदाहरण है। इसी प्रकार, जिन-प्रतिमालक्षण आदि यानी जिन-प्रतिमा व स्वस्तिक आदि, 'आदि' पद से साधु के पद-चिन्ह आदि का ग्रहण होता है। इन्हें देखकर भावमङ्गलात्मक (आत्मीय) परिणति होती है। यह स्थापना की भावमङ्गल में कारणता का उदाहरण है। अब 'द्रव्य' की भावमङ्गल में कारणता का दृष्टान्त प्रदर्शित कर रहे हैं- परिनिर्वृत यानी मुक्ति को प्राप्त जो मुनि, उसके शरीर को, तथा भव्ययति यानी भविष्य में यति पर्याय प्राप्त करने वाले व्यक्ति को, तथा सुवर्ण की माला को देखकर प्रायः सम्यग्दर्शन आदि रूप भावमङ्गल-परिणति हो जाती है। इसलिए भावमङ्गलपरिणति के कारण होने से नाम आदि भी भावमङ्गल हैं- यह सिद्ध हो जाता है| यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 57-58 // a 92 -------- विशेषावश्यक भाष्य -----------
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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