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________________ अमुमेवार्थं प्रयोगोपदर्शनद्वारेण समर्थयन्नाह नातीतमणुप्पन्नं परकीयं वा पओअणाभावा। दिद्रुतो खरसिंगं परधनमहवा जहा विफलं॥४१॥ [संस्कृतच्छाया:- नातीतमनुत्पन्नं परकीयं वा प्रयोजनाभावात् / दृष्टान्तः खरशृङ्ग परधनमथवा यथा विफलम् // ] अतीतमनुत्पन्नं च वस्तु नास्तीति प्रतिज्ञा, प्रयोजनस्य विवक्षितफलस्य तत्राऽभावात् सर्वप्रयोजनाऽकरणादित्यर्थ इत्ययं हेतुः, दृष्टान्तस्तु खरशृङ्गम्, असत्त्वे चातीताऽनागतयोर्द्रव्यमङ्गलता दूरोत्सारितैव, धर्मिसत्त्व एव धर्माणामुपपद्यमानत्वादिति। द्वितीयप्रयोगः क्रियते- परकीयमपि यज्ञदत्तसंबन्ध्यपि वस्तु देवदत्तापेक्षया नास्त्येव, प्रयोजनाऽकरणात् खरविषाणवदिति हेतुदृष्टान्तौ तावेव, अथवा यथा परस्य यज्ञदत्तस्य धनं देवदत्तापेक्षया विफलं प्रयोजनाऽसाधकं सद् नास्ति, तथा सर्वमपि परकीयं नास्तीति द्वितीयो दृष्टान्तः। इति कुतः परकीयस्याऽपि द्रव्यमङ्गलत्वम्? // इति गाथार्थः॥४१॥ _ अब, अनुमान-प्रयोग के प्रदर्शन (प्रस्तुतीकरण) द्वारा पूर्वोक्त कथन का समर्थन करते हुए (आचार्य आगे) कह रहे हैं (41) नातीतमणुप्पणं परकीयं वा पओअणाभावा। दिटुंतो खरसिंगं परधणमहवा जहा विफलं || [(गाथा अर्थः) अथवा (अभीष्ट) प्रयोजन की सिद्धि नहीं करा सकने के कारण अतीत (भूत) व अनुत्पन्न (भावी)-दोनों ही (वस्तु) खर-शृंग (गधे के सींग) की तरह (असद् रूप) हैं। इसी तरह, परकीय वस्तु भी उसी तरह निष्फल (निरर्थक) होती है, जिस प्रकार परकीय धन।] व्याख्याः- यह जो वस्तु अतीत व अनुत्पन्न है, वह (वस्तुतः) है ही नहीं -यह (अनुमानवाक्यगत) प्रतिज्ञा है। 'प्रयोजन रूप विवक्षित फल के अभाव होने से', अर्थात् 'समस्त प्रयोजन की सिद्धि न कर पाने के कारण'-यह ‘हेतु' है। 'खरशृंग'-यह दृष्टान्त है। जब वह वस्तु है ही नहीं, तब उस अतीत व अनागत की द्रव्यमङ्गलता की बात तो दूर छूट जाती है, क्योंकि धर्मी के होने पर ही तो धर्मों की संगति हो सकती है। द्वितीय (अनुमान-) प्रयोग प्रस्तुत किया जा रहा है- परकीय वस्तु, जैसे यज्ञदत्त की वस्तु देवदत्त की अपेक्षा (अर्थात् देवदत्त के लिए) परकीय है और इसलिए (देवदत्त के लिए) असत् रूप ही है, क्योंकि वह वस्तु (देवदत्त के) किसी प्रयोजन की सिद्धि नहीं करती, जैसे गधे के सींग, उपर्युक्त हेतु व दृष्टान्त पूर्वोक्त (अनुमान-प्रयोग) की तरह ही हैं। अथवा, जैसे परकीययज्ञदत्त का धन देवदत्त की अपेक्षा से विफल यानी 'प्रयोजन का असाधक' है, इसलिए वह असद्प है, उसी प्रकार, समस्त परकीय वस्तु असद्रूप है- यह दूसरा दृष्टान्त है। इसलिए, (असत्) परकीय वस्तु की द्रव्यमङ्गलता भी किस प्रकार (संभव) हो सकती है?॥ यह गाथा का अर्थ हुआ // 41 // ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 71 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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