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________________ अथ ऋजुसूत्रनयमतेन द्रव्यमङ्गलं विचारयितुमाह उज्जुसुअस्स सयं संपयं च जं मंगलं तयं एक्कं। नातीतमणुप्पन्नं मंगलमिटुं परक्कं व॥४०॥ [संस्कृतच्छाया:-ऋजुसूत्रस्य स्वकं साम्प्रतं च यद् मङ्गलं तदेकम्। नातीतमनुत्पन्नं मङ्गलमिष्टं परकीयं वा॥] ऋजु अतीताऽनागतपरिहारेण परकीयपरिहारेण वाऽकुटिलं वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रो नयस्तस्य स्वकमात्मीयमेव, तथा सांप्रतं च वर्तमानक्षणभाव्येव यद् द्रव्यमङ्गलं तदेवैकमभिमतम्। अनभिमतप्रतिषेधमाह- नातीतम्, अतिक्रान्तसमयभावि, नाऽप्यनुत्पन्नं भविष्यत्समयभावि द्रव्यमङ्गलम्, अस्येष्टम्। परक्कं व' परकीयं वा यद् द्रव्यमङ्गलं तदप्यस्य नेष्टम, विवक्षितैकप्रज्ञापकस्याऽऽत्मानं विहाय यत् परस्मिन् वर्तते तदपि द्रव्यमङ्गलमसौ नेच्छतीत्यर्थः। मन्दमतिशिक्षावबोधार्थश्चाऽनभिमतप्रतिषेधः, अन्यथा ह्यभिमते कथितेऽनभिमतमर्थापत्तितो गम्यत एव॥ इति गाथार्थः॥४०॥ चज मङ्गल तयं एक्कं। विविध नयों से (आगमतः) द्रव्यमङ्गल अब, ऋजुसूत्रनय के दृष्टिकोण से 'द्रव्यमङ्गल’-सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करने हेतु कह रहे हैं (40) उज्जुसुअस्स सयं संपयं च जं मङ्गलं तयं एकं। . नातीतमणुप्पन्नं मङ्गलमिटुं परकं व // [(गाथा अर्थः) ऋजुसूत्र नय की दृष्टि में जो स्वकीय व वर्तमान मङ्गल है, वही एक द्रव्यमङ्गल (मान्य) है। जो अतीत है, अनुपलब्ध (भावी) है और जो परकीय है, वह मङ्गल इसे अभीष्ट नहीं है। ] व्याख्याः- ऋजुसूत्र नय अतीत व अनागत (भावी) का परिहार करके, अथवा परकीय वस्तु का परिहार कर के 'ऋजु' यानी अकुटिल (सीधे सादे रूप में, सामने विद्यमान) वस्तु का सूत्रण (ग्रहण) करता है, अतः जो (ऋजुता की दृष्टि से) उसका स्वकीय व आत्मीय हो-ऐसा ही, तथा जो वर्तमानक्षणस्थायी है, ऐसा (ही) एक 'द्रव्यमङ्गल' उसे स्वीकृत है। जो उसे अभीष्ट नहीं है, उसका प्रतिषेध करने हेतु कह रहे हैं- जो अतीत न हो, अर्थात् व्यतीत समयवर्ती न हो, और जो अनुत्पन्न अर्थात् भविष्यकालीन भी न हो- ऐसा ही द्रव्यमङ्गल इस (नय) को अभीष्ट होता है। परकीयं चअर्थात् जो द्रव्यमङ्गल परकीय हो, वह भी इसे अभीष्ट नहीं है। तात्पर्य यह है कि विवक्षित एकमात्र प्रज्ञापक (वक्ता) की आत्मा को छोड़कर जो दूसरे में रहता हो, उस द्रव्यमङ्गल को भी यह नहीं चाहता (स्वीकार करता) है। यह (उक्त नय के) जो अनभीष्ट (प्रतिषिद्ध) वस्तु का प्रतिषेध यहां बताया गया है, वह मन्दमति शिष्यों को दृष्टि में रखकर किया गया है, अन्यथा (किसी) नय का अभीष्ट जो कह दिया गया तो उसके अनभिमत का अर्थापत्ति से बोध हो ही जाता है। यह गाथा का अर्थ पूर्ण हुआ // 40 // Mia 70 -------- विशेषावश्यक भाष्य ----
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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