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________________ [संस्कृतच्छायाः-न विशेषार्थान्तरभूतमस्ति सामान्यमाह व्यवहारः। उपलम्भव्यवहाराभावात् खरविषाणमिव॥] ननु भोः सामान्यवादिन् ! भवताऽपि वनस्पतिसामान्यं बकुलाऽशोक-चम्पक-नाग-पुन्नागा-ऽऽम्र-सर्जाऽर्जुनादिविशेषेभ्योऽर्थान्तरं वाऽभ्युपगम्येत, अनर्थान्तरं वा? / यद्यर्थान्तरम्, तर्हि नास्त्येव तद् विशेषव्यतिरेकेण, उपलब्धिलक्षणप्राप्तस्य तस्योपलम्भ-व्यवहाराभावात्, खरविषाणवत्। क एवमाह?, व्यवहारनयः, उपलक्षणत्वाद् विशेषवादी नैगमश्च। एतौ हि लोकव्यवहारानुयायिनौ, तद्व्यवहारश्च प्रायो विशेषनिष्ठ एव, इति विशेषानेव समर्थयत इति भावः। अथानुपलब्धिलक्षणप्राप्तं तदभ्युपगम्यते, तथाऽपि नास्ति, विशेषेभ्यः सर्वथाऽन्यत्वात्, गगनकुसुमवदिति / अथ विशेषेभ्योऽनन्तरं तदिति द्वितीयपक्षः, तर्हि विशेषा एव तत्, तेभ्योऽनर्थान्तरभूतत्वात्, विशेषाणामात्मस्वरूपवदिति। यदि च विशेषेष्वपि सामान्योपचारः क्रियते, तर्हि न काचित क्षतिः,न ह्यौपचारिकमेकत्वं तात्त्विकमनेकत्वं बाधते // इति गाथार्थः॥३५॥ [(गाथा-अर्थः) व्यवहार नय का कहना है कि जो 'सामान्य' है वह 'विशेष' से अर्थान्तरभूत यानी 'कोई भिन्न वस्तु' नहीं है, क्योंकि (विशेष से भिन्न पृथक् रूप में) उस (सामान्य) की न तो उपलब्धि होती है और न ही व्यवहार में वह (सामान्य) उपयोगी है, अतः वह गधे के सींग की तरह (अस्तित्वहीन) है।] व्याख्याः- (विशेषवादी की ओर से कहा जा रहा हैः-) हे सामान्यवादी! आप भी बताएं कि वनस्पति-सामान्य को बकुल, अशोक, चम्पक, नाग (केसर), पुन्नाग (जायफल), आम, सर्ज (साल), अर्जुन आदि वृक्ष-विशेषों से अतिरिक्त व पृथक् पदार्थ मानते हैं या अनन्य-अभिन्न? यदि वह विशेषों से भिन्न व पृथक् पदार्थ है, तब तो वह विशेष से रहित होने के कारण, अस्तित्वहीन ठहरता है, क्योंकि जो उपलब्धि के लक्षण से युक्त होते हुए भी उपलब्ध नहीं होता या व्यवहारोपयोगी नहीं होता, वह गधे के सींग की तरह अस्तित्वहीन ही होता है। . (प्रश्न-) उपर्युक्त कथन किस (नय) का है? (उत्तर-) व्यवहार नय का (कथन) है। उपलक्षण से यहां विशेषवादी नैगम नय का भी कथन इसे समझ लेना चाहिए, क्योंकि ये दोनों (व्यवहार व नैगम) ही नय लोकव्यवहार का अनुसरण करते हैं (उसे प्रधानता देते हैं), और व्यवहार प्रायः 'विशेष' पर ही आश्रित होता है (जैसे व्यवहार में एक विशेष घड़े को ही उठाया जा सकता है, न कि संसार के सभी घड़ों को एक साथ) -यह तात्पर्य है। सामान्य के उपलब्ध न होने पर भी यदि उसका अस्तित्व स्वीकार किया जाता है, तो भी विशेषों से सर्वथा अनन्य (अभिन्न) होने के कारण उसका अस्तित्व आकाश-पुष्प की तरह, निराकृत हो जाता है। अच्छा चलो, सामान्य विशेषों से पृथक नहीं है- ऐसा द्वितीय पक्ष स्वीकार करते हो, तो भी, विशेष से अनन्य होने के कारण, उस (सामान्य) की विशेषरूपता ही सिद्ध होगी, क्योंकि जैसे विशेषों का (अपना) आत्मीय स्वरूप (विशेष से अनन्य होने से) विशेष रूप ही होता है, न कि अन्य पदार्थरूप, वैसे ही 'सामान्य' भी 'विशेष' से अनन्य होने से Mia ---------- विशेषावश्यक भाष्य -------- 65 र
SR No.004270
Book TitleVisheshavashyak Bhashya Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni, Damodar Shastri
PublisherMuni Mayaram Samodhi Prakashan
Publication Year2009
Total Pages520
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aavashyak
File Size11 MB
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