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________________ भवनपतिके इन्द्रोंके नाम, शक्तिपरिचय ] गाथा-२२ [ 81 वेणुदालीन्द्र, चौथे विद्युत्कुमार निकायकी दक्षिणदिशाका हरिकान्तेन्द्र और उत्तरदिशाका हरिस्सहेन्द्र, पांचवें अग्निकुमार निकायके दक्षिणदिशाका अग्निशिखेन्द्र और उत्तरदिशाका अग्निमानवेन्द्र, छठे द्वीपकुमार निकायके दक्षिण विभागका पूर्णेन्द्र और उत्तर विभागका विशिष्टेन्द्र और सातवें उदधिकुमार निकायके दक्षिण विभागका जलकान्तेन्द्र और उत्तरविभागका जलप्रभेन्द्र, आठवें दिशिकुमार निकायके दक्षिणविभागका अमितगतीन्द्र और उत्तरविभागमें अमितवाहनेन्द्र, नौवें पवनकुमार निकायके दक्षिणविभागका वेलम्बेन्द्र और उत्तरविभागका प्रभञ्जनेन्द्र, दसवें स्तनितकुमार निकायके दक्षिण विभागमें घोपेन्द्र और उत्तर विभागमें महाघोषेन्द्र इस प्रकार कुल बीस इन्द्र कहे गये हैं। ग्रीष्मऋतुमें अथवा चातुर्मासमें जिस तरह कोई मनुष्य हाथमें दण्ड पकड़कर अपने मस्तकको छत्रसे ढंकता है उसी तरह इन इन्द्रोंमेंसे किसी भी इन्द्रकी एक साधारण शक्तिमें एक लाख योजन लम्बा और चौड़ा गोलाकारमें स्थित--ऐसे जम्बूद्वीपको छत्राकार करना हो और एक लाख योजन ऊँचा और दस हजार योजनके घेरेवाला महान मेरुपर्वतका दण्ड करके छातेकी तरह मस्तक पर धारण करना हो तो, इतनी शक्ति-सामर्थ्य उनमें हैं। ऐसा महान प्रयत्न करने पर भी उसे तनिक भी थकान नहीं लगती। यद्यपि ऐसा कार्य करते नहीं और करेंगे भी नहीं। लेकिन ऐसी शक्तियाँ उनमें रही हैं। यह तो उनकी साधारणशक्तिमें भी कितनी सामर्थ्य है, यह बताया गया / - अरे ! एक महर्द्धिक देवकी शक्तिका वर्णन करते हुए सिद्धान्तकार बताते हैं कि-एक महर्द्धिकदेव, एक लाख योजनका जम्बूद्वीप जिसकी परिधि (घेरा) 111316227 योजन, 3 कोस, 128 धनुष, 133 अंगुल, 5 यव, 1 यूका जितना है, ऐसे विशाल जम्बूद्वीपकी भी एक मनुष्य तीन चुटकी बजाये उतने समयमें तो इक्कीस बार प्रदक्षिणा-[परिक्रमा ] कर ले / इतना ही नहीं, लेकिन ये इन्द्रादिक देव अगर समग्र जम्बूद्वीपको वैक्रियशक्तिके * द्वारा बालकों और बालिकाओंसे भर देना चाहें तो वैसी भी शक्ति सामर्थ्य रखते हैं। परन्तु वे यह शक्ति ११२प्रकट नहीं करते। . 111. " परिही तिलक्ख सोल्ससहस्स दो य सय सत्तवीसहिया / कोसतिगट्ठावीसे धणुसय तेरंगुलद्धहियं // 1 // " [लघु संग्रहणी] 112. १९वीं सदीमें वैज्ञानिकोंने तेजकी गती मापी, तो एक सेकन्डमें 1,86,000 मील थी / ... हमारी पृथ्वीका व्यास 25000 मीलका है, अतः तेजकी एक ही किरण अपनी दृश्य शक्तिसे पृथ्वीके आसपास घूमे तो एक सेकन्डमें सात बार प्रदक्षिणा करे इससे भी अधिक गतिवाली घटनाएँ सिद्ध हुई हैं और वे भी जड़ पदार्थमें, तब फिर चैतन्यशक्तिकी गतिके लिए तो पूछना ही क्या ? बृ. सं. 11
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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