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________________ * 356 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * वही नाम प्रस्तुत किया है। अतः आधार हीन 'रत्न' शब्द जोडनेके प्रलोभनमें आकृष्ट होना मुझे उचित नहीं लगा / साथ ही क्षेपक गाथाके रचयिताने श्रीचन्द्रमहर्षि के कृतिके प्रति प्रस्तुत आदरभावसे लोकवर्ती पदार्थीको रत्नकी तरह प्रकाशित करनेवाली होनेसे, स्वतंत्र नाम देकर, गर्भित रूपमें यह कृति 'रत्न' जैसी तेजस्वी तथा कीमती है ऐसे आर्थिक उद्देशसे अथवा तो जिनमेंद्रीया से इसे भिन्न कही जा सके ऐसे किसी हेतुसे क्या इस शब्दका प्रयोग किया होगा! ___ इस संग्रहणीको बृहत् ऐसा विशेषण लगाकर बृहत्संग्रहणी अथवा बड़ीसंग्रहणी इस नाणकी प्रसिद्धता कैसे हुई ! इसके लिए एक संभावित अनुमान यह किया जा सके कि इसी संग्रहणी ग्रन्थकी मूल 272-273 तथा चाल सिर्फ 34 4 और 345 वी इन दो गाथाओंको ही टीकाकारोंने 'लघुसंग्रहणी' शब्दका विरुद दिया / अतः फिर सैकडों गाथाओंके संग्रहवाली संपूर्ण कृतिको, अभ्यासियोंने बृहद् विशेषण देकर प्रसिद्धि दी हो। साथ ही हस्तलिखित प्रतिके अन्तमें “त्रैलोक्यदीपिका अथवा बृहत्संग्रहणी" ऐसा नाम भी मिलता है / अतः प्रथम आवृत्ति के प्रसंग पर मैंने भी इसी नामको प्रसिद्धि दी थी / यद्यपि उस समय पिछला विभाग शीघ्र पूर्ण करने का फर्ज पड़नेसे इस विषयमें विशेष संशोधन या विचार करनेका समय ही नहीं लिया था / साथ ही यह रचना तीनों लोक के पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली तो है ही / अतः नामकी यथार्थता समझकर मैंने भी प्रस्तुत नामको ग्रन्थके मुख्य नामके रूपमें छपवाया था / ___ वर्तमानमें प्रचलित 'दंडक' नामके प्रकरणको भी उसके टीकाकार रूपचंद्र मुनिजीने दंडक प्रकरणकी टीका करते हुए किये गये " लघुसंग्रहणीटीका, करिष्येऽहं मुदा" के उल्लेखसे दंडक प्रकरणको लघुसंग्रहणी शब्दसे सूचित करने लगते हैं। इसका कारण यह संभाव्य है कि भले ही ग्रन्थका नाम 'दंडक' है तथा चौबीसों दंडकोंकी गिनती सिर्फ एक ही गाथा में पूर्ण होती है लेकिन 24 द्वारोंवाली संग्रहणी रूप तीसरी 677. यदि इस कृतिका संग्रहणीरत्न' ऐसा नामकरण करें तो जिनभद्रीयासे स्पष्ट रूपमें अलग परिचय सरल हो जाए / यद्यपि आज तो दोनों कृतियाँ 'संग्रहणी सूत्र' अथवा 'बृहत्संग्रहणी' या बडी संघयणी (-या संग्रहणी ) शब्दसे ही श्रीसंघको परिचित है / अतः नाममें सुधार करना या नहीं इसे सोचेंगे / संग्रहणी 'सूत्र' रूपमें भी प्रचलित होनेकी प्रबल प्रथा होनेसे मैंने भी इसी तरह परिचय दिया। लेकिन 'प्रकरण' कहना अधिक उचित है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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