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________________ * ग्रन्थकर्ताका परिचय और 'संग्रहणीरत्न'का उल्लेख * अवतरण-श्रीचन्द्रीयाके कर्ता सूरिवरकृत यह गाथा नहीं है / परंतु उनके गच्छके या परंपराके अथवा तो उनके प्रति आदर-सम्मान रखनेवाले किसी व्यक्तिने बनाकर जोड दी है / श्रीचन्द्रमहर्षिने तो मूलगाथा 271 में ही मात्र स्वनामोल्लेख कर दिया है, परंतु वहाँ पर गच्छ या गुरुजीका नाम बताया नहीं है, अतः उसका निर्देश करने के लिए अथवा भविष्यमें प्रस्तुत महर्षि अन्य किसी गच्छके होंगे, ऐसा कोई मान न लें इस उद्देश से यह नूतनगाथा बनाकर जोड दी हो तो असंभव नहीं है / अपितु जो कुछ भी हो। यह गाथा एक नई वस्तुका भी सूचन कर देती है / वह यह कि-इस गाथा रचयिताने इस श्रीचन्द्रीया संग्रहणी को 'संग्रहणीरत्न' के नामसे परिचित किया है / मलधारिहेममरीण सीसलेसेण विरइयं सम्म / संघयणिरयणमेयं नंदउ जा वीरजिणतित्थं // 349 // गाथार्थ-मलधारिगच्छके श्री हेमचन्द्रसुरीश्वरजीके बालशिष्य श्री चन्द्रमहर्षिसे श्रेष्ठ रूपमें विरचित यह संग्रहणीरत्न अर्थात् इस नामका यह ग्रन्थ श्री श्रमण भगवान महावीरजिनका तीर्थ जब तक विद्यमान हो तब तक विद्यमान रहें ! // 349 // . . विशेषार्थ-विक्रमकी बारहवीं शताब्दीमें विद्यमान महाराजा कर्णदेवसे संप्राप्त 'मलधारि' बिरुदधारी श्री हर्षपुरीय गच्छके भूषणरूप श्रीमद् अभयदेवसूरि महाराज (तीसरे ) के पट्टरत्न श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी और उन्हींके पाट पर आये हुए उन्हींके शिष्य 'श्रीचन्द्र' नामके महर्षि हुए / उन्होंने यह सुंदर और श्रेष्ठ 'संग्रहणीरत्न' का निर्माण किया। इस गाथामें 'संग्रहणीरयण' शब्द प्रयोजित है / अतः इस ग्रन्थको 'संग्रहणीरत्न' ऐसा नाम. अर्पण करनेका लालच हमको भी हो जाए यह स्वाभाविक है और अमुक प्रकारसे. योग्य भी है, परंतु ऐसा साहस तब ही किया जा सके जब मूलक" या टीकाकारने वैसा नाम सूचित किया हो। तो प्रश्न अब यह रहा कि क्या मूलकर्ता या टीकाकारने वैसा नाम सूचित किया है ? तो उत्तर हैं-नहीं / इस ग्रन्थ की ही अन्तिम मुद्रित गाथामें स्वकृतिको स्पष्ट रूपसे सिर्फ संग्रहणी नाम ही दिया है। टीकाकारने मी 674. नवांगी टीकाकारसे भिन्न / 675. कलिकालसर्वज्ञसे भिन्न / 676. अलबत्ता पंद्रहवीं शताब्दी या उसके पूर्व तथा पश्चात् की संग्रहणीकी मूलगाथाकी संख्येय हस्तप्रतियोंमें संग्रहणी की गाथाएँ समाप्त होने पर 'इति श्री चन्द्रसूरिविरचित संग्रहणीरत्न समाप्त इस प्रकारकी या लगभग इससे मिलती जुलती पंक्ति लिखकर सर्वने इस संग्रहणी को 'संग्रहणीरत्न' शब्दसे परिचित की है तथा असल गाथामान 274 का पाया गया है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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