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________________ * 328 . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * स्वयं ही अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति द्वारा कार्मण वर्गणाके अनन्तानन्त स्कंधोंके स्तर जमाए हैं। इन्हीं अत्यंत सूक्ष्म स्कंधोंके फलस्वरूप उन्होंने अपने केवलज्ञानके प्रकाशको ढंक दिया है। इस प्रकार इतना ढंक देने पर भी चार ज्ञानोंका प्रकाश खुला रहता है। फिर मी अगर केवलज्ञानको सागर कहे तो (ये भले ही चार ज्ञान हैं फिर भी) इन्हीं छामस्थिक ज्ञानोंको विन्दु अथवा धुंद मात्र (मुश्किलसे) कह सकते हैं / इन ज्ञानावरण-दर्शनावरण कार्मण वर्गणा के स्तर ऊपर कहनेके मुताविक सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तव एकएक प्रदेशमेंसे अनंत-अनंत ज्ञानप्रकाश आलोकित हो उठता है, जिसके प्रभावसे अखिल विश्वमें व्याप्त रूपी-अरूपी सभी द्रव्य तथा उनके तीनों कालके समस्त पर्यायों-अवस्था ओंका साक्षात्कार (आत्मप्रत्यक्ष ) एक साथ एक ही समय पर होता है। प्रारंभमें प्राप्त यह साक्षात्कार ( अंतिम ) भवकी पूर्णाहूति तक रहता है ऐसा नहीं हैं, लेकिन केवलज्ञानी आत्मा मोक्षमें जाती है तब वह प्रकाश भी साथ साथ ही जाता है और अनंत काल तक टिका रहता है / बीज नष्ट होने पर जिस प्रकार अंकुर फूटते नहीं है, इस प्रकार ये बाधक कारण हमेशके लिए नष्ट होते ही निष्पन्न कार्य कायम बना रहता है। ....यहाँ ज्ञानप्राप्तिके आरंभिक समयमें आत्माकी भीतर उसके प्रदेश स्वरूप आयनेमें विश्वके रूपी-अरूपी अनेक द्रव्य तथा उनके त्रैकालिक पर्याय अवस्थाओंके अनंतानंत प्रतिबिंब पड़ने पर भी जिस प्रकार "दैर्पणमें अनेक प्रतिबिंब पड़ने पर भी आयनेके शीशेको जफा ( नुकशान ) पहुँचती नहीं है, उसी प्रकार केवलीके लिए कुछ मी जाननेमें किसी कठिनाईका सामना करना पड़ता नहीं है। इस ज्ञानकी प्राप्तिके बाद समग्र विश्वके रूपी-अरूपी किसी द्रव्य पर्याय या अंश शेष रहता नहीं है, जिन पर यह ज्ञान प्रकाश नहीं डाल सकता। इसलिए ही इस ज्ञानको लोकालोक प्रकाशक कहा है। विश्वमें ज्ञेय पदार्थ अनंत है। उन्हें जाननेके लिए ज्ञानकी मात्राएँ (ज्ञानांश ) भी अनंत ही होनी चाहिए, इसलिए इसे सन्तुलित (Balance) करनेके लिए आत्माके 641. इसका तात्पर्य यह कि न्यूनाधिकरूपसे इन्हीं चारों ज्ञान प्राप्तिके अधिकार उपस्थित होते ही है। 642. दूसरा कोई पूर्ण अनुरूप द्रष्टांत न मिलनेके कारणसे ही यहाँ पर स्थूल व्यवहारसे समझानेके लिए आयनेका द्रष्टांत दिया गया है / एक प्रकारसे तो यह एकदेशीय हुआ / वरना आयना और प्रतिबिंबित पदार्थ-दोनों रूपी है तो आत्मारूप आयना अरूपी और प्रतिबिंबित पदार्थ रूपी-अरूपी दोनों है / दृश्यमान प्रतिबिंबोंकी घटना शब्दसे अकथ्य है तो छानस्थिक बुद्धिसे भी अगम्प है / यह एक विलक्षण और अद्भुत बाबत ( जरीया) है / जिसमें ज्ञान होता है वही इसे समझ सकता है / विराट (महान् ) को विराट ही समझ सकते हैं, हम जैसे वामन नहीं, उसी न्यायसे /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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