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________________ शानद्वार-केवलज्ञान .327 . लेकर जो कुछ सोचा है कि-घट किस जातिका है ! कहाँका है ! किसीकी मालिकीका है कि नहीं ? रिक्त है कि भरा हुआ ? कितना पुराना है ? चित्रित अथवा रंगा हुआ है कि नहीं ? इत्यादि अनेक विचारोंको स्पष्ट रूपसे अधिक व्यापकतासे जान सकते हैं। ___यह विपुलमतिज्ञान ऋजुमतिसे अधिक निर्मल है। ऋजुमतिज्ञान केवलज्ञान तक टिका रहता है ऐसा नियम नहीं है। यह ज्ञान आकर चला भी जा सकता है। लेकिन विपुलमतिज्ञान केवलज्ञानके पूर्ववर्ती समय तक अवश्य उपस्थित रहता है। सर्वोत्तम ऋद्धिवंत सच्चे मुनि ही इस प्रकारका ज्ञान धारण कर सकते हैं / और वे सिर्फ मनुष्यलोकवर्ती तथा सिर्फ ढाई द्वीपकेवासी संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यचोंके ही द्रव्यमनको ( मनोद्रव्यसे) जान सकते हैं। इस ज्ञानका मुख्य हेतु मनके विचारोंको सिर्फ जानना ही है। लेकिन वे जब जाननेकी ईच्छा करें (ज्ञानका उपयोग करें) तब ही देख-जान सकते हैं / ये केवलीकी तरह सर्वथा आत्म-प्रत्यक्ष नहीं होते। 5. केवलज्ञान-यहाँ केवलका अर्थ परिपूर्ण, एक ही इत्यादि होता है। यह ज्ञान प्राप्त होनेके साथ ही पूर्ण रूपमें प्रकट होनेसे और श्रतादि दूसरे किसी भी ज्ञान अथवा इन्द्रियादिक सहायकी अपेक्षा रहती न होनेसे पूर्ण है। इस प्रकार पूर्ण होनेके कारणसे ही 'एक ही' तथा 'परिपूर्ण' दोनों अर्थ उपयुक्त बनते हैं। केवलज्ञानका विशेष स्वरूप प्रारंभमें मत्यादि ज्ञानोंको धारण करनेवाली कोई भी आत्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र अथवा तपादिककी निर्मल तथा श्रेष्ठ कोटिकी आराधनासे आत्मिक विशुद्धिमें बढती वीतराग अवस्थाकी पूर्णताकी ओर जब बढती रहती है तव, और जब वह चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब, आराधनाके प्रतापसे ज्ञानावरणीय कर्मके अवशेष मोहादि कर्मों के आवरणों (परदों)को सर्वथा चीर डालती है। अर्थात् सृष्टिके सर्वभावोंको जानने के कार्यों अब कोई भी अवरोध या आवरण विद्यमान नहीं रहता। ऐसे समय पर ऐसी व्यक्तिमें संपूर्णज्ञान प्रकट होनेसे ही इसे 'केवलज्ञान' कहा जाता है / इस प्रकार केवलज्ञान प्राप्त करनेवाली व्यक्ति 'केवली' अथवा सुप्रसिद्ध शब्दमें 'सर्वज्ञ' के रूपमें पहचानी जाती है / __ आत्मा अरूपी अर्थात् निराकार है और ऐसी एक आत्माके प्रदेश असंख्य होते हैं जो प्रदेश किसी एक शंखलेकी तरह एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। ये कभी एकदूसरेसे अलग नहीं होते, यह इसकी विशेषता है / इनमें रूचक' ऐसे सांकेतिक शब्दसे परिचित आत्माके आठ रूचक प्रदेशोंके सिवा अन्य तमाम प्रदेशों पर प्रत्येक आत्माने
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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