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________________ 72 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 16 उत्कृष्ट स्थिति अन्तिम प्रतरमें आई। (और अवशिष्ट बाँटनेको रखे गये 2 भाग भी बँट गये।) इस तरह सौधर्मकल्पके तेरहों प्रतरों में उत्कृष्ट स्थिति दिखाई / सौधर्म देवलोकके सर्व प्रतरों में जघन्य स्थिति 1 पल्योपमकी समझे। इस तरह ईशान देवलोककी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण निकालें। केवल अन्तर इतना समझे कि ईशानके पहले प्रतरमें, सौधर्मके पहले प्रतरमें जो स्थिति वर्णित की हो उससे कुछ अधिकांश समझे। ऐसे सौधर्मके जिस प्रतरमें जो स्थिति हो उससे 'अधिक' शब्द उस-उस प्रतर प्रसंगमें लगायें। इससे क्या होगा कि ईशान देवलोकके अन्तिम प्रतरमें दो सागरोपमसे अधिक आयुष्यस्थिति उत्कृष्ट आयुष्य धारण करनेवाले इन्द्र . आदि देवोंकी प्राप्त होगी / [15] ___अवतरण-अब सनत्कुमारादि देवलोकके प्रतरोंमें जघन्य उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति जाननेके लिए भी 'करण' उपाय कहते हैं: सुरकप्पठिई विसेसो, सगपयरविहत्तइच्छसंगुणिओ। .. हिडिल्लठिईसहिओ, इच्छियपयरम्मि उक्कोसा // 16 // गाथार्थ-सनत्कुमार आदि कल्पोपपन्न देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको अपने-अपने देवलोक सम्बन्धी प्रतरकी संख्यासे भाग दें। जो संख्या आये उसे इष्टप्रतरकी संख्यासे गुणित करे, जो उत्तर आये वह और नीचेके प्रतरकी स्थिति दोनोंके मिलानेसे इष्टप्रतरमें उत्कृष्ट-स्थिति प्राप्त होगी // 16 // विशेषार्थ-पूर्व गाथामें सौधर्मके तेरहों प्रतरों में उत्कृष्ट स्थिति बताकर अब सनत्कुमार देवलोकके प्रतरोंमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति जाननेका कारण बताते हैं सौधर्म देवलोकके तेरहवें प्रतरमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति दो सागरोपमकी आई है। अब सनत्कुमार देवलोकके पहले प्रतरकी उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति निकालनी है-सनत्कुमारमें उत्कृष्ट स्थिति 7 सागरोपम है और सौधर्म देवलोकके 13 वें प्रतरमें 2 सागरोपम की है उसका विश्लेष-[कम ] करना अर्थात् सात सागरोपममें से दो सागरोपम कम करना / अतः पांच सागरोपम आये, उसे 12 प्रतरोंमें भाग करनेके लिये 1 सागरोपमके 12 भाग करनेसे 5 सागरोपमके 60 भाग हुए, उन 60 भागोंको प्रत्येक प्रतरमें समान भागमें बाँटनेसे प्रत्येक प्रतरमें बारहवें पांच भाग (5) आता है। अब सौधर्मके तेरहवें प्रतरमें 2 सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति आई है, उसमें उक्त रीतिसे सनत्कुमारके पहले प्रतरमें बारहवेंपांच भाग जोड़ना इससे 2 सागरोपम और बारहवें-पांच भाग आये, (60 भागमेंसे पांच भाग कम होनेसे 55 भाग आयुष्य शेष रहा,) दूसरे प्रतरमें 2 सागरोपम और बारहवें 10 भाग आये, (55 मेंसे 5 (पांच) भाग कम होनेसे 50 रहे / ) तीसरे
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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