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________________ ज्योतिषीदेवका जघन्य-उत्कृष्ट आयुष्य ] गाथा 15 [ 71 अवतरण-सौधर्म तथा ईशानदेवलोकके प्रतरोंमें जघन्य और उत्कृष्ट आयुष्य जाननेके लिये 'करण' ( उपाय ) प्रदर्शित करते हैं सोहम्मुक्कोसठिई, नियपयरविहत्त इच्छसंगुणिआ / पयरूकोसठिइओ, सव्वत्थ जहन्नओ पलियं // 15 // गाथार्थ-सौधर्म देवलोकवासी देवोंकी उत्कृष्ट स्थितिको सौधर्म देवलोकके प्रतरकी संख्यासे बांटकर जिस प्रतरका आयुष्य निश्चित करना हो उस प्रतरसे पूर्वोक्त संख्याको गुना करनेसे इष्ट प्रतरकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। जघन्य स्थिति तो सब प्रतरोंमें पल्योपम प्रमाण है // 15 // विशेषार्थ-अब आयुष्य-स्थितिका तेरहों प्रतरों में बँटवारा करना होनेसे, वैमानिक निकायके प्रथम सौधर्म देवलोकमें उत्कृष्ट आयुष्यस्थिति (तेरहवें प्रतरमें ) दो सागरोपमकी है, उसे तेरह प्रतरोंके बीच बाँट देनी चाहिये / अतः एक सागरोपमके तेरह भाग करें, तो दो सागरोपमके छब्बीस भाग होंगे। इन छब्बीस भागोंको सौधर्मकल्पके तेरह प्रतरों के साथ बाँटनेसे सौधर्मके पहले प्रतरमें एक सागरोपमके तेरहवें-दो भागका आयुष्य आता है, ( अर्थात् दो सागरोपमके किये छब्बीस भागों मेंसे दो भागका आयुष्य कम होनेसे शेष चौबीस भागोंका रहा।) वैसे ही दूसरे प्रतरका आयुष्य निकालना हो तब उसे उतनेसे गुननेसे तेरहवें चार भागका आयुष्य आता है। (प्रथमके अवशिष्ट 24 भागोंमेंसे दो भाग आयुष्य कम होनेसे 22 भागका रहा।) इस तरह हरएक प्रतरमें निकालना / जिससे तीसरे प्रतरमें तेरहवें-(छह) 6 भाग आयें। (पूर्वके 22 भागों में से 2 कम होनेसे 20 रहे / ) चौथे तेरहवें-आठ भाग, (२०मेंसे 2 कम होनेसे 18 भाग रहे।) पाँचवें प्रतरमें गुना करनेसे तेरहवाँ-दस भागायुष्य आये, (१८मेंसे 2 कम करनेसे 16 रहे ) छठे प्रतरमें तेरहवें-बारह भाग, (१६मेंसे 2 कम होनेसे 14 भाग रहे / ) सातवें में तेरहवें-चौदह भागका आयुष्य होता है। अपनी रीतिके अनुसार 1 सागरोपमके तेरह भाग हों तो पूर्ण सागरोपम गिन लें, अतः सातवें प्रतरमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ-१ भागका आयुष्य कहा जाये, (पूर्वके १४मेंसे 2 भाग कम होनेसे 12 रहे / ) आठवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ-तीन भागका, (१२मेंसे 2 कम होनेसे 10 भाग रहे / ) नौवेंमें एक सागरोपम और तेरहवाँ-पांच भागायुष्य आये, (१०मेंसे 2 भाग कम हुए 8 भाग बाँटनेको रहे।) दसवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवें-सात भाग आये, (८मेंसे 2 गये छ रहे।) ग्यारहवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवें-९ भागका (६)से 2 कम हुए 4 रहे / ) बारहवेंमें 1 सागरोपम और तेरहवाँ 11 भागका, (४मेंसे 2 भाग गये तथा 2 भाग ही बाँटनेको बाकी रहे।) तेरहवें प्रतरमें 1 सागरोपम 13 भाग, तेरहवें भागमें एक सागरोपम होनेसे 2 सागरोपम
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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