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________________ * ज्ञान द्वार-श्रुतशान * * 315 . अथवा वैसे पदार्थीके शब्द सुनते ही उनके रूप तथा गुणादिकका जो शीघ्र ख्याल आ जाता है, यह सब एकवार 'श्रुतनिश्रित' बनी हुई मतिके कारण ही है / परोपदेश अथवा शास्त्र आदिके किंचित् मात्र अभ्यासके बिना जन्मान्तरके स्वाभाविक रूपसे उत्पन्न मतिज्ञानावरणीय कर्मके विशिष्ट क्षयोपशमसे पैदा होती यथार्थमतिको अश्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहा जाता है। अन देखे-अन जाने पदार्थों के बारेमें बुद्धि पूर्वसे ही तुरंत जो यथार्थ रीतिसे कार्य कर देती है वह / जिसे दैवी उपहार (भेंट)के रूपमें पहचाना जाता है / उपर्युक्त चारों प्रकारकी बुद्धि इसके अंतर्गत आ जाती है / 2. श्रुतज्ञान-इस शीर्षकके पूर्वार्धका 'श्रुत' शब्द किससे बना है ? यह ठीक तरहसे सोचे तो उसके गर्भित अर्थका ख्याल हमें आयेगा / यह श्रुत 'अ' श्रवण (सुनना) धातु परसे बना है, जिससे इसकी व्युत्पत्ति होती है-श्रूयते तत् श्रुतम् अर्थात् जो सुना जाता है वह है श्रुत / तो क्या सुनते है ! इसका उत्तर है अक्षर, शब्द, वाक्य अथवा कोई भी ध्वनि-आवाज / इसलिए एक बात तो तय हो गयी है कि जो शब्दादि है वही श्रुत है। इस शब्दादिका श्रवण कर्णेन्द्रिय ( कान ) द्वारा ही होता है और मनकी सहायतासे उसे जानते है, समझते है / यद्यपि लेवटपर तो समझनेवाला मीतर आत्मा है / इससे यह स्पष्ट होता है कि कर्णेन्द्रिय तथा मन द्वारा प्राप्त श्रुत ( शब्द ) ग्रन्थानुसार जो बोध होता है वही श्रुतज्ञान है। शंका-तो फिर जिसे कर्ण अथवा श्रोत्रेन्द्रिय नहीं होती, जिसके कारण वह कुछ मी सुन सकता नहीं है, तो क्या उसे श्रुतज्ञान नहीं मिलेगा ? . समाधान-उपर्युक्त परिभाषा तो एकदम सरल तथा सर्व सामान्य है / लेकिन इसकी दूसरी परिभाषाएँ जाननेसे इस प्रश्नका समाधान हो जायेगा / दूसरी परिभाषा-श्रोत्र और नेत्र स्वरूप निमित्तोंसे उत्पन्न श्रुत-ग्रन्थानुसारी जो बोध होता है वह / इस परिभाषासे बधिर (बहरा) न हो और नेत्र या आँखें (दृष्टि) हो तो श्रुतज्ञान हो सकता है / अर्थात् आँखोंसे ( पढ़कर ) ही शास्त्रादि ग्रन्थों द्वारा श्रुतज्ञान प्राप्त हो सकता है। , तीसरी परिभाषा-इस श्रुतज्ञानके दो प्रकार हैं। एक स्वमति प्राप्त और दूसरा परोपदेश प्राप्त अर्थात् बाह्य इन्द्रियोंकी सहायताके बिना जन्मान्तरके क्षयोपशमसे भी मति सह श्रुत हो जाती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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