SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 696
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * 300 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * पड़ता ही नहीं है, अगर होता तो वे अपने जन्मान्तरमें कर्मका भोग जरूर कर सकते। लेकिन अब भवभ्रमणका तो अंत ही हो जाता है / इन सब कारणोंसे चारोंकी स्थिति इस प्रकार एक समान हो जानी चाहिए कि आयुष्यकी पूर्णाहुतिके साथ-साथ शेष तीन कर्म भी सर्वथा निर्जरी सके अथवा क्षय हो सके। और ऐसी स्थितिका सर्जन समुद्घात जैसे आत्मप्रयत्नोंसे ही संभवित हो सकेगा। यह क्रिया आठ समयकी होती है / केवली भगवान तीन कर्मोकी दीर्घ विषम स्थितिका क्षय करके, उन्हें सुव्यवस्थित बनानेके लिए अपने आत्मप्रदेशोंको अपने शरीरके बाहर निकालकर पहला समयमें ऊर्ध्व दिशा और अधो दिशाके अन्त तक अर्थात् चौदेहराजलोक प्रमाण लम्बा और. अपने शरीरके प्रमाण जितना लम्बा-चौड़ा आत्मप्रदेश दंडाकारमें रचते हैं। द्वितीय ( दूसरा ) समयमें पूर्वसे पश्चिम लोकान्त तक वे अपने आत्मप्रदेशोंको विस्तृत करते हैं जिससे आत्मप्रदेशोंका आकार आलमारी जैसा बन जाता हैं। तीसरे समयमें वे अपने आत्मप्रदेशोंको उत्तर-दक्षिण लोकके छोर तक बड़ा कर देते हैं जिसके कारण ये आत्मप्रदेश मथानी जैसा आकार धारण करते हैं। - इस प्रकार आत्मप्रदेश व्याप्त हो जानेके बाद चौथा समयमें मन्थान-मथानीके बीच जो अंतर है अर्थात् अमी भी आत्मप्रदेश रहित लोकाकाश रहा है उस रिक्त जगहकी पूर्ति स्वात्मप्रदेशोंसे करते हैं / इतना करनेसे केवलज्ञानी भगवंतके असंख्य आत्मप्रदेश लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेश पर चार ही समयमें व्याप्त हो जानेसे उनकी आत्मा लोकव्यापी बन जाती है / क्योंकि एक आत्माके तथा लोकके प्रदेश समान हैं / तदनन्तर पाँचसे आठ तकके चार समोंमें आत्मप्रदेशोंका लोकव्यापी जो विस्तार हुआ है उसे पुनः समेट लेते हैं अर्थात् पाँचवे समयमें वे रिक्त जगहमें व्याप्त आत्मप्रदेशोंको पुनः वापस खींच लेते है, छठे समयमें मथानीके (उ.द.) दो पांखों (पक्षों) को, सातवें समयमें पूर्व - पश्चिममें रचित आलमारी आकारके प्रदेशोंको तथा आठवें समयमें ऊर्ध्वाधो ( ऊपर - नीचे )रचित दंडाकार प्रदेशोंको संहर ( सिमट ) कर अपनी आत्माको पुनः पूर्ण रूपसे मूल देह जैसा बना देते हैं। 599. आँखको बन्द करके खोल दें इतनेमें असंख्य समय लगता है / 600. 'एक ही समय ' अर्थात् सेकण्डका असंख्यातवाँ भाग, इतने ही कालमें सैकडो ऐसे अरबों मील गति कर सकते हैं। चैतन्य रूपकी यह विलक्षण (अद्भुत) और विराट ताकत कहाँ ? और उसके आगे वामन अर्थात् छोटी ( सीमाबद्ध ) लगती आजके उपग्रहों अथवा रॉकेटकी ताकत कहाँ ?
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy