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________________ .298. . * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * जीव समुद्घात 1. वेदना समुद्घात-तीसरे वेदनीय नामक कर्ममें अशाता वेदनीय कर्मसे (अर्थात् दुःख-अशांतिसे ) पीड़ित आत्मा, कभी कमी अति आकुल-व्याकुल बनती है, तब अनंतानंत स्कंधोंसे परिवृत्त (आवृत्त) अपने अपने आत्मप्रदेशोंको शरीरके बाहर निकालकर उन्हीं प्रदेशोंसे शरीरके मुख, जठरा, कर्णादिकके छिद्रोंको तथा कंधेके भागोंको ( कंधेसे मस्तक तक ) कैद करके स्वशरीर जितने क्षेत्रमें सघन रीतसे व्याप्त होकर ( समचोरस जैसा ) अन्तर्मुहूर्त तक उसी स्थितिमें टिका रहे, और उसी समय दरमियान उदीरणाकरण द्वारा दीर्घकाल तक भुगतने योग्य कुछेक कर्म पुद्गलोंको उदित करके नाश करता है, उस हरेक कर्मक्षयके साथ साथ नये कौका ग्रहण होता हैं और जीवके प्रति नहीं भी होता / 2. कषाय समुद्घात-कषायसे राग या द्वेषकी अति तीव्रतासे आकुल बनी हुई आत्मा वेदना समुद्घातके समय उसी प्रक्रिया स्वरूप दीर्घकाल तक भुगतने योग्य कुछेक कषाय मोहनीय कर्मोको चालू उदयके साथ ही भुगतकर नष्ट कर देते हैं। यहाँ भविष्यके कर्मोंको वे वर्तमानमें ज्यों ज्यों भुगतते हैं, त्यों त्यों उस प्रकारके नये नये कर्मीको ग्रहण भी करते हैं। और अगर ग्रहण नहीं करते हैं तो. जीवका मोक्ष ही हो जायेगा। इस कषाय समुद्घा तमें चार प्रकारका समुद्घात होता है-क्रोध, मान, माया और लोभका। 3. मरण समुद्घात-यह समुद्घात आयुष्यकर्मी है। इस लिये वह अवसानके पूर्व ऐकें अंतर्मुहूर्त शेष रहता है तब ही होता है। मरणान्तसे व्याकुल बनी हुई आत्मा मरणान्तके पूर्व एक अंतर्मुहूर्तायुष्य शेष रहता है तब अपने ही आत्मप्रदेशोंसे स्व. शरीरके छिद्रवाले-रिक्त भागोंको भरकर, स्वशरीरकी चौड़ाई जितने स्थूल और लम्बाईमें जघन्यसे अंगुलासंख्य भाग और उत्कृष्टसे एक ही दिशामें समश्रेणीमें उत्पत्ति स्थान तक, आत्मप्रदेशों द्वारा असंख्य योजन प्रमाण व्याप्त हो जाय और आयुष्यकर्ममें भी अनेक पुद्गलोंका शीघ्र नाश (क्षय) करता है, उसे मरण समुद्घात कहा जाता है / ( यहाँ नये पुद्गलोंका ग्रहण होता नहीं है / ) * जिस प्रकार खंधक अणगारादि लोगोंके लिए / 598. हरेक जीव मरण समुद्घात करके ही मृत बनता है ऐसा नहीं है। क्योंकि मरण तथा मरण समुद्घात ये दोनों भिन्न भिन्न चीज है। साथ ही मरण समुद्घात भगवतीजीके अभिप्राय से एक भवमें दो बार हो सकता है। लेकिन मरण तो दूसरे समुद्घातमें अवसान के पूर्व एक अन्तर्मुहूर्त शेष रहता है तब ही होता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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