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________________ * 296 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * कोई छः यात्री चलते-चलते जंगलमें जा पहुँचे / वे अधिक परिश्रम और थकानके कारण भूख और तृषासे दुःखी-दुःखी होने लगे। उन्होंने थोडी दूरी पर सुंदर जामुनके गुच्छोंसे भरा हुआ एक जामुनका पेड़ देखा। इसलिए ये छः यात्री वहाँ पहुँच गये और जामुन खानेकी इच्छासे उसे लेनेके लिए सोचने लगे। उनमें से एक यात्री बोला-"बोलिए भाई ! कच्चे पक्के हरेक प्रकारके जामुन के बहुत-से गुच्छ लटकते हैं। इसलिए जामुन तो बहुत-सारे हैं, लेकिन खानेवाले हम सिर्फ छः लोग ही है। क्या करेंगे ?" यह सुनकर छःमेंसे एक यात्री बोल उठा-"अरे! यार इसमें अधिक सोचना कैसा ? कुल्हाडी मारकर पेड़ को ही जल्दी नीचे गिरा दें, ताकि स्वेच्छानुसार. खा सकें ! " उसकी बात सुनकर नासमझका प्रमाण अधिक होने पर भी पूर्वकी अपेक्षासे जो कुछ अधिक समझदार था उसने कहा-" भाईओं ! ऐसा किस लिए ? थोडे-से जामुन खानेकी खातिर सारे पेडका मूलसे ही नाश क्यों ? नहीं ! नहीं !! इसके बदले फलोंसे लदी हुयी बडी-बडी डालोंको ही क्यों न तोड़ दें ! बादमें जितना चाहे जामुन खा सकेंगे !" तब तीसरा मुसाफिर बोला-" अरे भाईओं ! ऐसा क्यों ? फलोंके गुच्छोवाली छोटी-छोटी टहनियाँ ही बहुत-सी हैं, इसलिए बडी-बडी डालोंका विनाश नहीं करना चाहिए ! और बडी-बडी डाल फिर कब उगेगी ? इसलिए हम छोटी-छोटी टहनियोंको ही तोड दें।" तब उनमेंसे चौथा बोल उठता है-"अरे ! भाई ! आपके सभी विचारोंमें जल्दबाजी है। हम टहनियाँ भी तोडे तो आखिर क्यों ? हमें जरूरत है जामुनकी, डालियोंकी नहीं; इसलिए डालियोंमें जो गुच्छ है उन्हें ही तोड दे / " तब उससे भी अधिक जो बुद्धिशाली था उसने कहा-" भाईओं ! ऐसा क्यों करते हैं ? गुच्छोंको तोड़नेके बदले हममेंसे एक पेड पर चढकर फलोंको ही तोड़कर ले आये उसमें बुरा ( गलत ) क्या है ? हमें खाना है जामुन, गुच्छे नहीं।" इस प्रकार वे सभी एकमत हुए इतनेमें अंतिम छट्ठवाँ यात्री जो मौन धारण करके खडा था, जिसे पहले पाँचों यात्रियों के विचार नापसंद थे। वह अति चतुर बुद्धिशाली था। उसने कहा-“देखिए भाईओं ! मेरा अभिप्राय ( मत ) आपसे भिन्न है। यह आपको पसंद हो या न हो, मैं नहीं कह सकता। लेकिन जिसे मानव हृदय मिला है, उसे मानवताकी दृष्टिसे थोडा-सा सोचना चाहिए और कोई भी कार्यमें अपनी विवेक बुद्धिका उपयोग करना चाहिए ! आप सबको भूख लगी है यह बात सच है, लेकिन उसको तृप्त करनेके लिए जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। हमारी आर्य संस्कृति और मानवता ऐसा कार्य करनेसे
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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