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________________ * लेश्यावारका स्वरुप . * 295 . शुभ अध्यवसाय फलमें असहायक है, जब कि अंतिम तीन निर्मल और प्रशस्त है जो आत्माके शुभ अध्यवसाय फलमें ( नतीजेमें ) सहायक है। इस प्रकार पहली तीन दुर्गति करनेवाली और शेष तीनों "सैद्गति करनेवाली हैं। चौदहवाँ गुणस्थानक छोड़कर शेष सभी गुणस्थानक पर सर्व संसारी जीवोंमें द्रव्य और भाव ये दोनों लेश्याएँ होती है। लेकिन इतना विशेष है कि देवगण तथा नारकोंकी द्रव्य लेश्या हमेशा एक ही होती है। लेकिन आत्मपरिणाम स्वरूप भाव लेश्याएँ सभी ५००(छः) होती है, जिससे इनके नतीजे बदलते रहते हैं। और सर्वज्ञको छोड़कर शेष मनुष्य तथा तिर्यंचोंकी शुक्लको छोडकर शेष द्रव्य और भाव लेश्या जघन्योत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्तमानयुक्त है। यहाँ शुक्ल लेश्याकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट नौ वर्ष न्यून पूर्वक्रोड सालकी है / 1. कृष्ण लेश्यावाले जीव वैर लेनेमें निर्दय, अतिक्रोधी, कठोर मनके, आत्मधर्मसे एकदम विमुख, महारंभी और क्रूर होते हैं। 2. नील लेश्याके स्वभाववाले जीव माया दभमें कुशल (प्रविण), चंचलस्वभाववाले, अति विषयी, असत्यवादी तथा रिश्वतखोर होते हैं / . 3. कापोती पाप जैसी चीजको न माननेवाला, मूर्ख और क्रोधी होता है। 4. तेजो लेश्यावान् सरल, दानेश्वरी, सदाचारी, धर्मबुद्धिवान् और अक्रोधी होता है। . 5. पद्मलेश्यावाला धर्मिष्ठ, दयावान् , स्थिर स्वभावी, गंभीर, सभीको दान देनेवाला, अतिकुशल बुद्धिवाला और मेधावी होता है। ". 6. जब कि शुक्ललेश्यावाला जीव अतिधर्मिष्ठ, पापरहित प्रवृत्ति करनेवाला और अत्यंत निर्मल मनवाला होता है। जामुनके दृष्टांत छः लेश्यावाले जीवोंकी आत्माकी कक्षा समझनेके लिए हमारे यहाँ जामुनके पेड़वाली घटना सुंदर रूपसे समझायी है। ( इससे हरेक लेश्या कैसे अभिप्राय अथवा स्वभावयुक्त होती है उसका खयाल आयेगा।) जो इस प्रकार है कि 596. सामान्यतः ऐसा नियम है कि जिस लेश्यामें जनम होनेवाला है उसी लेश्यामें ही पूर्व जन्ममें अवसान होता है / 'जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे (सो) उववज्जइ / ' , 597. इसलिए सातवें नारकी जीवोंको सम्यक्त्वप्राप्ति संभवित हो सकती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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