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________________ * कषायद्वारका विस्तृत वर्णन * * 289 . अनंत जीवोंकी विविध प्रवृत्तियों के कारण इनकी भावनाओं तथा विचारोंमें अनंत तारतम्य पडते हैं। और इसके कारण ही इनके कषायोंके नतीजेमें भी उतनी ही तरतमताएँ खडी हो सकती है। लेकिन इन अनंत वर्गोंको वाणीसे अथवा लेखनसे व्यक्त करना असंभवित होनेसे इनका वर्गीकरण करके शास्त्रकारोंने मन्द, तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम ऐसे मूल चार भेदोंको फिरसे चार प्रकारोंमें बाँट दिये हैं तथा अर्थानुसार इनके चार नाम भी इस प्रकार दिये गये हैं-(१) अनन्तानुबंधी (2) अप्रत्याख्यानी (3) प्रत्याख्यानी और (4) संज्वलन / (1) जिस कारणसे तीनों जगतमें जीव अनंत संसारका अनुबन्ध करते हैं, उसके कारण उसे अनंतानुबंधी क्रोधादि कहा जाता है। यह कषाय सच्चा विवेक होने ही नहीं देता। (2) सच्ची समज होनेके बावजुद भी कषायके उदयके कारण जीव थोडा-सा भी त्याग नहीं कर सकता है, इस लिए उसे अप्रत्याख्यानी कषाय कहा जाता है। यह कषाय संसारके कामभोगके प्रति जीवको आसक्त रखता है। (3) इस प्रकार जिस कषायके उदयसे जीव सर्वाशसे सावध :योग ( अशुभ योग ) का जो त्याग नहीं कर सकता है उसे प्रत्याख्यानी कषाय कहा जाता है और (4) जिस कषायके उदयसे त्यागी बैरागी ऐसे महात्माओंको भी इष्टकी प्राप्तिमें आनंद तथा अनिष्टकी प्राप्तिमें खेदादिक होता है और मन कुछ कुछ अशांत बन जाता है इसे संज्वलन कषाय कहा जाता है। मूल कषायके 16 भेद जो इस प्रकार हैं 1. अनंतानुबंधी - क्रोध / 1. अप्रत्याख्यानी - क्रोध 2.. , - मान - मान - माया 3. . - माया 4.. - लोभ | 4. . - लोभ 1. प्रत्याख्यानी - क्रोध | 1. संज्वलन - क्रोध 2. , - मान | 2. - मान --- माया - लोभ / 4. - लोभ ___ इस लिए क्रोध चार प्रकारका है। इसी प्रकार मान आदि भी चार-चार प्रकारके हैं। अब उनमें भी पुनः जीवभेदके कारण अनेक वर्गों की रचना होती है। इस लिए उन बृ. सं. 37 / / / / / / / /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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