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________________ .278. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * संग जब छूट जाता है तब ही जीवका मोक्ष होता है। क्योंकि मोक्षमें कोई भी शरीर साथ साथ नहीं होता / कर्म है वहाँ शरीर है / कर्मका संपूर्ण नाश होनेके बाद कारण जानेसे कार्य भी नष्ट हो जाता है / अभव्य जीव किसी भी काल पर मोक्षमें जाते ही नहीं है। इस लिए उन जीवों के लिए दोनों शरीर अनादि अनंतकालके और भव्य जीवों (जो मोक्षमें जानेवाले होनेसे) के लिए अनादि सांत होते हैं। गर्भज जीव सर्व प्रथम गर्भमें आता है और उसके बाद ही जन्म धारण करता है। जब कि संमूच्छिम जीवोंमें गर्भ धारण करना न होनेसे पृथ्वी, वायु, जलादिके योगोंसे उनका प्रारंभसे ही एकाएक जन्म हो जाता है। ___4. विषयकृत भेद- यहाँ विषय शब्दका अर्थ 'क्षेत्र' समझना है। इसलिए उसी हरेक शरीरकी हरेक क्षेत्राशयी गति कहते हुए यह समझना है कि औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट गति लाखों योजन दूर आये हुए तेरहवें रुचक द्वीपके रुचक पर्वत तक होती है। कोई कोई औदारिक शरीरी मुनिगण - जिन्होंने तपश्चर्यादि द्वारा जंघाचरण जैसी विशिष्ट शक्तियाँ प्राप्त की है उनका शरण लेकर 'इस' गतिको समझें और विद्याचारण मुनिगण - विद्याधरोंकी गति आठवें नंदीश्वर द्वीप तक तथा ऊर्ध्वगति मेरुके पांडुकवन तक ही समझें / वैक्रिय शरीरी जीवोंका गमनागमन तिर्यक् असंख्य द्वीप-समुद्र तक और ऊर्ध्वाधोगमन देव आश्रयी (देवाश्रित) चौथी नरकपृथ्वीसे लेकर अच्युत देवलोक तक होता है। आहारक शरीरी महाविदेह क्षेत्र तक और कार्मणका गति विषय समग्र चौदह राजलोकमें होता है। क्योंकि जीवका उत्पत्तिस्थान सर्वत्र होता है / इतना ही नहीं, ये दोनों शरीर संसारी जीवोंके साथ संसार हो तब तक अविनाभावीपन होते हैं। इसके सिवा समुद्घातकी अपेक्षासे भी व्याप्ति ले सकते हैं। 5. प्रयोजनकृत भेद- 1. औदारिक शरीरका प्रयोजन धर्म अधर्मका उपार्जन, सुख-दुःखका अनुभव तथा केवलज्ञान अथवा मोक्षादिककी प्राप्ति है। इस शरीरके ये सब कार्य-लाभ हैं। और अगर यह लाभ प्राप्त होता है तो सिर्फ इसी शरीरवालोंको ही होता है। 2. एकसे अनेक और अनेकसे एक, सूक्ष्मसे स्थूल और स्थूलसे सूक्ष्म, अवकाश-- मार्गसे स्वशरीर द्वारा गमनागमन तथा श्रीसंघके अथवा अन्य किसीके भी कार्यमें मदद करना आदि वैक्रिय शरीरके प्रयोजन हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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