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________________ * पाँच शरीगेके विवेचन * * 273 . पहचान करवायी हैं। इसका मतलब यह कि यह शरीर कर्मका समूहरूप है। यह शरीर प्रत्येक जीवात्माओंके असंख्य आत्मप्रदेशोंके साथ तैजस शरीरकी तरह अनादिकालसे जुड़ा हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं, लेकिन मोक्षप्राप्तिके अन्तिम समय तक अविरहरूप रहता भी है। लेकिन इतना विशेष समझें कि कर्मकी 158 की संख्या अंत तक रहती ही है ऐसा नहीं होता, इसमें परिवर्तन हो सकता है / नामकर्म के अंदरकी कार्मणशरीर नामकर्मकी प्रकृतिके द्वारा कार्मणवर्गणाओंका ग्रहण-विसर्जन होता रहता है / यह कर्मशरीर अथवा कार्मणशरीर दूसरे सभी शरीरोंकी और खुद अपनी मी उत्पत्तिमें मूल कारणभूत है। अरे ! सारे संसारको खड़ा करनेवाला यह कार्मणशरीर ही है। यह शरीर स्वयं किसी सुख या दुःखकी अनुभूति नहीं कर सकता है। अथवा कर्म का बंध या निर्जरा इसे होती नहीं है। वह स्वयं कर्म रूप जरूर है, फिर भी उसे कर्मबंध लगता नहीं है, इस लिए उससे कर्मका उपभोग भी नहीं हो सकता है तथा क्षय भी नहीं हो सकता है। इस प्रकार सुख हो या दुःख इसका भोग ( उपभोग ) शेष चार शरीरोंसे ही होता है। तेजस कार्मण बावतमें कुछ-एक बातका यहाँ पर खास ध्यान रखना है कि प्रत्येक आत्मा जब एक गतिमेंसे दूसरी गतिमें जाती है तब अर्थात् वर्तमान दृश्य शरीर अवसान पानेके बाद जब नया शरीर धारण करता है, तब इसी बीचके अति सूक्ष्मकाल दरमियान आत्माकी साथ और दो शरीर अर्थात् तैजस और कार्मण भी जुड़े हुए होते ही है। और बादमें इन्हीं दोनों शरीरोंका अस्तित्व समग्र विवक्षित जन्म दरमियान ही नहीं लेकिन समग्र संसार पर्यन्त रहता है। लेकिन जीवको जन्म जन्मान्तरके लिए भटकानेवाला शरीर तो एक मात्र कार्मण ही है, तैजस नहीं। लेकिन बिना तैजस कार्मण अकेला कभी भी होता ही नहीं है यह बात भी उतनी ही निश्चित है। - अब कार्मणके साथ उष्णतामानयुक्त तैजस शरीर होनेसे इलेक्टीकसीटी (विजली) के समान आत्माको गति सहायक बन सकता है / : अगर किसीको यह शंका हो कि जीव, मृत्युके समय दोनों शरीरोंके साथ ही दृश्य शरीरमेंसे बाहर नीकलता है तथा जन्मके समय दोनों शरीरोंके साथ ही उत्पत्ति स्थानमें प्रवेश करता है तो फिर वे दोनों शरीर हमें क्यों नहीं दिखायी पडते हैं ! 576. कुछ आचार्य सिर्फ एक कर्मिणको ही अनादिवालसे जीवके साथ जुड़ा हुआ मानते है और तेजस तो लन्धिसे प्राप्त होता है ऐसा कहते हैं। '; बृ. सं. 35
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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