SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 668
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * 272 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * इस प्रकार जलाने तथा बुझानेको दोनों प्रक्रियाएँ करनेकी विशिष्ट लब्धिशक्ति यह शरीर धारण कर सकता है। 5. कार्मण शरीर- संसारमें आत्मा और कर्म ये दोनों चीजे मुख्यं है / जिसे पुरुष तथा प्रकृति भी कहा जाता है। आत्मा यह एक स्वतंत्र द्रव्य है / उसका अपना मूल स्वभाव अनंत ज्ञानमय-दर्शनमय एवं चारित्रमय है। वह अरोगी, अकषायी, अनामी तथा अविनाशी इत्यादि है। लेकिन 'कर्म' नामक द्रव्य अनादिसे साथ होनेके कारण उसका अपना मूल स्वभाव या स्वरूप दब गया है। कर्म क्या है ? इसका प्रत्युत्तर है कि वह एक प्रकारके विश्व व्यापी कर्मयोग्य पुद्गलस्कंध ही है। ये पुद्गलस्कंध अपने आप दूसरोंको निग्रह या अनुग्रह, सुख. या .. दुःखके करण बनते नहीं है, लेकिन आत्मा जब शुभ या अशुभ, अच्छी या बुरी, विचार-वाणी या वर्तन द्वारा प्रवृत्ति करती है तब उस शरीरधारी आत्माकी अवगाहनामें आये हुए कर्मके स्कंध स्वयं खींचकर जीवके आत्मप्रदेशोंके साथ जुड़ जाते हैं / और जुडानेके साथ ही उन पुद्गल स्कंध?में सुख-दुःख आदि देनेकी एक ही शक्ति-स्वभाव आविर्भाव पाता है। उसी शक्तिके आविर्भावके साथ साथ ही उस शक्तिका प्रकार, उसकी कालमर्यादा, उसका प्रभाव तथा प्रमाण भी तय (मुकरर) होता है। अब आत्माकी साथ क्षीरनीरके (दूध-पानीके) समान एकरूप बने हुए कर्म यथायोग्य समय पर परिपाक (पूर्ण विकसित) होते ही उन कर्मोकी सुख-दुःख देनेकी शक्तियाँ खुली हो जाती है। और जीवको इसका यथायोग्य अनुभव करना पड़ता है। जहाँ तक संसारमें परिभ्रमण रहता है वहाँ तक उसका अस्तित्व भी रहता ही है। जीवोंके विचार, वचन तथा वर्तन अनंत प्रकारके होनेसे कर्म भी अनंत प्रकारके हैं, लेकिन इन्हीं अनंत प्रकारोंको व्यक्त करना, सुनना या समझना असंभवित होनेसे सर्वज्ञ भगवंतोंने इसका वर्गीकरण दिया है। इस प्रकार उनको 158 प्रकारोंमें समाविष्ट किया है। बादमें 158 का फिरसे वर्गीकरण करके उसे आठ प्रकारोंमें संक्षिप्त किया है। इस प्रकार सामान्य रूपसे मुख्य कर्म आठ है, लेकिन उनकी उत्तर प्रकृतियाँ ( प्रकार ) 158 होती है। इन्हीं 158 प्रकारके कर्म-प्रदेशों या परमाणुओंका जो समूह पिंड है उसे ही 'शरीर' शब्द लगाकर 'कार्मण शरीर' इस नामसे शास्त्रकारोंने 575. जिस प्रकार शीतल ऐसे समुद्रमें से ( वडवानल नामक ) अग्निका तथा जलसभर बादलमेंसे बिजलीका उद्भव होता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy