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________________ * चौबीस द्वारोंके विस्तृत वर्णन ... .265 . .' * गाथार्थ- 1. शरीर, 2. अवगाहना, 3. संघयण, 4. संज्ञा, 5. संस्थान, 6. कषाय, 7. लेश्या, 8. इन्द्रिय, 9. जीव समुद्घात, 10. अजीव समुद्घात, वर्तमानमें हमारे यहाँ जीवविचारादि प्रसिद्ध चार प्रकरणोंके अंदर एक दंडकका प्रकरण आता है। अलबत्ता उसका असली नाम क्या है ? यह तो रचनाकार ही. जाने ! क्योंकि उसे आदि या अंतमें कहीं पर भी सूचित किया नहीं है। लेकिन सत्रहवीं सदीके टीकाकार श्री रूपचन्द्रमुनिजी इसके तीन नाम सूचित करते हैं / पहला लघुसंग्रहणी, दूसरा विचारषदर्चिशिका और तीसरा षत्रिंशिका / इनमें पहला नाम टीकाके मंगलाचरणमें, दूसरा अंतिम ४४वीं गाथाकी. टीकामें और तीसरा टीकाकी प्रशस्तिमें है। अंतिम दोनों नाम तो लगभग एक समान ही है, इस लिए 'लघुसंग्रहणी' और 'विचारषद् त्रिशिका' ये दोनों नाम ही प्रमुख हैं। फिर भी सोचने पर एक ही नाम टीकाकारको अभीष्ट है ऐसा समझमें आता है। उनके कारणोंको जानना यहाँ पर ठीक नहीं है इस लिए नीचे जो विषय प्रस्तुत है उसे ही देखते हैं। ___ संग्रहणीसूत्र जिसको आज-कल सभी लोग 'बृहत्संग्रहणी' अथवा 'बडी संघयणी' (अथवा संग्रहणी) के नामसे पहचानते है। इसमें संक्षिप्ततर संग्रहणीके रूपमें ऊपर जो दो गाथाएँ छपी हुी है उसी गाथाको ही उसी आनुपूर्वी पर इसी दंडक प्रकरणके प्रारंभमें ही गाथा 2 और 3 के रूपमें दी है। गाथाओंमें संपूर्ण समानता होने पर भी अर्थकी दृष्टिसे 'दंडक' के रचयिता स्वयं संग्रहणी मूल और टीकाके आशयसे अलग पडते हैं। संग्रहणीकी दोनों गाथाएँ (और उनके सभी टीकाकार भी) समुद्घातका द्वार एक नहीं लेकिन दो माननेका सूचन करती हैं, जब कि दंडक प्रकरणके रचयिता गजसारमुनिजी दोनों समुद्घातोंका एक ही द्वार मनाते हैं। इसका सबूत दंडककी 20 वीं गाथा ही है। मत्यादि तीनों अज्ञानोंको जो चौबीस दंडकोमें दिये गये हैं, वही इसी गाथामें मिलते हैं। यदि 24 द्वारोंमें उस द्वारकी गिनती न होती तो दंडकमें उसका स्वतंत्र स्वरूप वे करते ही नहीं, लेकिन गजसारमुनिजीने प्रस्तुत दोनों गाथाओंमें अज्ञान द्वार शब्द द्वारा सूचित नहीं किया है तो किस आधार पर उन्होंने ऐसी प्ररुपणा की ? तो इसके उत्तरमें 24 द्वारोंको संग्रहरूप गाथाओंकी टीका करते हुए ग्रन्थकारने लिखा है कि ". ज्ञानसाहचर्यादत्राऽप्यनुक्तमपि त्रिधाऽज्ञान...। एतत्सूत्रे नोक्तं बहिर्गम्यम् / और अज्ञान द्वारकी व्याख्या करते 20 वीं गाथाकी टीकामें वे लिखते हैं कि-'अथ गाथान्तर्भूतं त्रयोदशमद्वारं निरुप्यते / शानद्वारान्तोऽशानद्वारमन्तर्भूतं तच्च प्रादुष्कृतम् // इत्यादि / वे प्राचीन प्ररूपणासे अलग क्यों पडते है ? तो हमें लगता है कि इस प्ररूपणाका कोई प्राचीन आधार जरूर होना चाहिए और उसके लिए आगमस्थ दोनों गाथाओंका विवरण जाँचना जरूरी बनता है / इसके अतिरिक्त भावनगरकी प्रसारक सभाकी ओरसे वि. सं. 1991 की सालमें प्रकाशित क्षमाश्रमण कृत संग्रहणीकी अनुवादयुक्त पुस्तिकामें पीछे दिये गये यंत्र संग्रहमें 36 वा जो यंत्र दिया गया है, वहाँ ज्ञान तथा अज्ञान इस प्रकार दो द्वार बताये हैं और समुद्घातका एक ही द्वार बताया है / . इसके उपरान्त इस ग्रन्थकी प्रथमावृत्तिमें मैंने भी जल्दीमें अनुवाद पूर्ण करनेकी धूनमें तथा अपने फर्जके प्रति बेपरवाह रहनेके कारण दंडक प्रकरणके मतानुसार 24 द्वार ही बताये हैं। और अब इस समय मैंने अपनी गलती सुधार ली है / ब. सं.३४
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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