SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 660
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * 264 . __ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * हम सबके समक्ष की है। इसी लिए मैंने उपरोक्त उल्लेख किया है। अगर मेरी मतिकल्पनासे मैं करूँ तो खुलेपनसे गुरुआशातनाका में भागीदार बनें / इस तरह टीकाकारने स्वगुरुदेवकी उपकारशीलता और अनुग्रहबुद्धिकी रसिक हकीकत प्रस्तुत करके स्वगुरुगौरव और भक्ति दिखाई है। धन्य हो ! ऐसे गुरु-शिष्योंके जोडेको ! हमारा उन्हें अनंत वंदन / श्री चन्द्रीया संग्रहणी यहाँ पूर्ण होती है / अबके बादकी गाथाएँ पुनः प्रक्षेप रुपमें दी हैं। और अंतिम गाथा उनके किसी अनुरागी विद्यार्थीने बनाई होगी। [343 ] ॐ अह नमः श्रीधरणेन्द्रपद्मावतीपूजिताय-श्रीशंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः। अवतरण- यह 'श्रीचन्द्रीया' संग्रहणी उत्कृष्टकी अपेक्षा जघन्य है ही लेकिन उससे मी अत्यंत संक्षिप्त संग्रहणी है, जो सिर्फ दो गाथाके मानवाली और प्रख्यात है, तथा जो मात्र 24 द्वारों के नाम मात्रका ही निर्देश करनेवाली है। ये सुप्रसिद्ध गाथाएँ श्रीचन्द्रमहर्षिकृत नहीं हैं, आगमोक्त हैं। यहाँ उन्हें उद्धृत समझना / संखित्तयरी उ इमा संरीरमोगाहणा य संघयणा / सन्ना संठोण काय लेस इंदिअ दु समुग्धाया // 344 // , "दिद्विदसणाणे जोगवओ"गोवाय-चवण-ठिई"। पज्जत्ति किमाहारे सन्नि-गई-आगइ-एँ // 345 // 570. जिनभद्रीया संग्रहणीमें उपरोक्त गाथाएँ (तफावतयुक्त) नीचे अनुसार दी हैं। सरीरोगाहणसंघयणसंठाणकसाय हंति सणाओ / लेसिदिअसमुग्घाए सन्नी वेए अ पज्जत्ति // 365 // दिट्ठि-दसण-नाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे / उववाय-ठिइ-समुग्घाय-चवणं गईरागई चेव // 366 // इस गाथामें 24 द्वारोंसे युक्त संक्षिप्त संग्रहणी जिस क्रमसे दर्शायी है उससे जिनभद्रीया संग्रहणी की गाथाओंके क्रममें अंतर (फर्क) आ गया है। वहाँ शरीरोगाहणसंघयणसंठाणकसायं...इस प्रकार क्रम है। इसके उपरान्त श्रीचन्द्रीयाकारने गाथा 272 (अपची चालू गाथा 344 ) के दु समुग्माया पदकी टीका करते हुए 'समुद्घात का द्वार एक नहीं लेकिन दो है ऐसा सूचित किया है। क्योंकि समुद्घात के दो प्रकार हैं / इसलिए दोनोंके लिए अलग-अलग द्वार समझना चाहिए। और यही बात योग्य है ऐसी प्रतीति इनकी पूर्वकालीन जिनभद्रीया संग्रहणीकी कुछ परिवर्तनयुक्त संक्षिप्त संग्रहणी स्वरूप गाथाएँ ही कराती है। वहाँ गाथा 365 में समुग्घाए तथा गाथा 366 में समुग्धाय ऐसा दोनों समय समुद्घात पदका उपयोग करके समुद्घात के द्वार दो गिनने हैं, ऐसी स्पष्ट रूपसे मुहर लगा दी है। दोनोंके टीकाकार भी इसी प्रकार ही संमत हुए हैं / लेकिन वर्तमानमें जो प्रकरण ‘दंडक' शब्दसे प्रसिद्ध है उनके कर्ता-रचयिता उपर्युक्त मतसे अलग पडते हैं। यह नीचे दी गयी हकीकत से स्पष्ट हो जायेगा।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy