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________________ * 260 * * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * गाथार्थ- प्रथम श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणने संक्षिप्त संग्रहणी रची थी / अभ्यासियोंने अन्यान्य गाथाएँ जोड़कर संक्षिप्त या मूल संग्रहणीको ही गुरुतर-बहुत बड़ी बना दी। इस विस्तृत संग्रहणीमेंसे ही उपयोगी हकीकतोंको ग्रहण करके, सम्यग् ज्ञान दर्शन चारित्ररूपी श्री से युक्त, मुनिओंमें श्रेष्ठ ऐसे 'श्रीचन्द्र' मुनिने अपने अध्ययनार्थ पुनः इस (संक्षिप्त) संग्रहणी निर्माण की अर्थात् रची। // 343 // विशेषार्थ- आठवीं सदीमें हुए महान भाष्यकार भगवान श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण पूज्यने, अपनी बुद्धिरूपी मथनीसे श्रुतशास्त्र रूप सागरका मंथन करके, अज्ञान विषसे मूर्छित बने भव्य जीवोंको, पुनर्जीवन देनेमें अमृतके समान एक 'संखित्तासंगहणी' संक्षिप्त संग्रहणी उद्धृत की। अर्थात् जो आत्माएँ अधिकारकी दृष्टिसे, बुद्धिमन्दताके कारणसे या समयके अभावसे, बडे शास्त्रोंका अध्ययन कर सकनेवाले नहीं थे, उन जीवोंको भी अखिल विश्वके अंदर रहे पदार्थों से यत्किंचित् पदार्थोंका बोध सुगम रीतसे हो, इसलिए महत्त्वकी गाथाओंको आगमादिक ग्रन्थोंमेंसे अलग करके, अथवा. तो महत्त्वके विषयोंको संक्षिप्त रूपमें गाथावद्ध करके संग्रहरूपमें नवीन गाथाएँ तैयार हुई जिन्हें 'संग्रहणी' (-यो संग्रहणि ) शब्दसे पहचानी गई / प्रस्तुत संग्रहणी श्री चन्द्रीया टीकाके उल्लेख अनुसार संक्षिप्त अर्थात् अनुमानतः 273 गाथा आसपास (270 से 2801) की थी परंतु इसके पैरै मूल टीका 560. जिनभद्रीया संग्रहणीमें क्षमाश्रमणजीने आदि या अंतमें कहीं भी स्वनाम सूचित नहीं किया है। लेकिन टीकाकार श्री मलयगिरिजीने यामकुरुत 'संग्रहणी' जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यः' इस उल्लेखसे इसके कर्ता भाष्यकार श्री जिनभद्रगणिजी है, ऐसा स्पष्ट हो जाता हैं। 561. कृतिभेदका ख्याल रहे इसलिए जिनभद्रीया कृतिको ‘संग्रहणी', श्री चन्द्रमहर्षिकी कृतिको ‘संक्षिप्त संग्रहणी' और 344-45, इन दोनों गाथाओंको ‘संक्षिप्ततर संग्रहणी' के रूपमें पहचानें तो अयोग्य नहीं हैं / 562. शास्त्रान्तरेषु प्रज्ञापनादिषु विस्तरेणामिहिता अर्थाः संक्षिप्य गृह्यन्ते प्रतिपाद्यत्वेनाभिधीयन्तेऽस्यामिति [सं० गा० 272 टीका ] पन्नवणादि आगमादि शास्त्रोंमें प्रतिपादित किये अर्थोको (शब्दों द्वारा ) संक्षिप्त करके जिसके अंदर प्रतिपादित किए गए हों वैसी रचनाको 'संग्रहणी' शब्दसे पहचानी जाती है। ...अभिधीयन्ते यया ग्रन्थपदत्या सा [ मलयगिरिकृत सं० टीका ] 563. प्रहेरणि [ उ० 638 ] रित्यौणादिकेऽणि प्रत्यये संग्रहणिः इतोऽक्त्यर्थादिति [ सि. 2-4-32] विकल्पेन डी. प्रत्यये च संग्रहणी। 564. इयं पूर्व भगवता जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणेन...उद्धृता...संक्षिप्ता संग्रहणी / 565. मूलसंग्रहणी 270 से 280 लगभग मानवाली थी इसका प्रमाण क्या ? तो संग्रहणी टीकाकारने किया " ननु यदि संक्षिप्तया प्रयोजनं तर्हि मूलसंग्रहण्येवाऽस्तु किं पुनः प्रयासेन प्रायस्तस्या अप्येतावान्मात्रत्वात् " यह उल्लेख / यहाँ श्री चन्द्रीया संग्रहणीके टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजीने जिनभद्रीया संग्रहणीको प्रायः शन्दसे लगभग 275 आसपासके
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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