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________________ * शेष छः संज्ञाओंका वर्णन * * 259. है। संसारवर्धक इन चारों संज्ञाओंको तोड़ने, मोक्षप्रापक चारों धर्मका आराधन करने सतत जागृत रहना मानव जीवनका अनिवार्य कर्तव्य हैं / [341] (प्र. गा. सं. 71) 'अवतरण-दस संज्ञाएँ कहकर मात्र मनुष्योंमें 10 उपरांतकी अधिक छः संज्ञाओंको कहते हैं। सुह-दुह मोहा सन्ना, वितिगिच्छा, चउदसा मुणेयव्वा / सोए तह धम्मसन्ना, सोल सन्ना हवइ मणुएसु // 342 // [प्र. गा. सं. 72] गाथार्थ-विशेषार्थवत् / // 342 / / विशेषार्थ११. 1. सुख- शातारूप सुखका अनुभव हो वह। यह शातावेदनीयके उदयसे होता है। 12. 2. दुःख-अशातारूप दुःखका अनुभव / यह अशातावेदनीय कर्मोदयसे होता है। 13. 3. मोह- यह मिथ्या दर्शनरूप है, अर्थात् सत्में असत् और असत्में सत्की बुद्धि होना। 14. 4. विचिकित्सा-चित्तकी चपलता-विह्वलता या उछाला / यह मोहनीय और ज्ञाना . वरणीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होता है / 15. 5. शोक- रुदन, खेद, बेचैनी और वैमनस्यभावको उत्पन्न करनेवाला। 16. 6. धर्मसंज्ञा-क्षमा, मृदुता, सरलता, सत्य, तप आदि धर्मोके आसेवनरूप है। ___यह मोहनीयकर्मके क्षयोपशमसे उदयमें आता है। ये संज्ञाएँ सम्यग् या मिथ्या दोनों दृष्टिवाले मनुष्योंके संभवित हैं / इस तरह छः संज्ञाएँ पूर्ण हुई। इनके सिवा प्रकारान्तरसे जीवोंमें दीर्घकालिकी, हेतुवादिकी और दृष्टिवादिकी ये तीन संज्ञाएँ भी होती हैं / 24 दंडकके द्वारमें इसका वर्णन आएगा / [342] (प्र. गा. सं. 72) ___ अवतरण- यह संग्रहणी लघु है या बृहत् ! इसके कर्ता कौन? यह क्यों बनाई ? इसका खुलासा ग्रन्थकार स्वयं करते हैं। संक्षुित्ता संधैर्यणी गुरुत्तर संघयणी मज्झओ एसा / सिरिसिरि चंदमुर्णिदेण, णिम्मिया अत्तपढणत्था // 343 // 559. जिनभद्रीया संग्रहणीमें क्षमाश्रमणने ग्रंथका नाम नाणमणंतमणत्थं ता संगहणित्ति नामेणं // 1 // यह आद्य गाथामें ही सूचित किया है। जब कि श्री चन्द्रमहर्षिने 'संग्रहणी' नाम इस अंतिम गाथामें सूचित किया है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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