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________________ * इन्द्रियोंका भेद . .237 . भावेन्द्रियके दो उपप्रकार * पुनः भावेन्द्रियके दो प्रकार हैं / लब्धि और उपयोग अर्थात् (1) लन्धि भावेन्द्रिय (2) उपयोग भावेन्द्रिय / इस तरह प्रकार बताकर, उसकी व्याख्या करते हुए प्रथम द्रव्येन्द्रियके प्रकारोंका स्वरूप कहते हैं। प्रथम हरेकका संक्षिप्त शब्दार्थ देखें / / द्रव्येन्द्रिय- जड़ पुद्गलोंकी बनी हो वह / 'निवृत्ति' अर्थात् आकृति आकाररचना वह / 'बाह्य' अर्थात् बाहरके दृश्य भागमें वर्तित / 'आभ्यन्तर' अर्थात् अंदरके भागमें वर्तित / 'उपकरण' विषय ग्रहण करनेमें उपकार करनेवाली शक्ति विशेष वह / यह शक्ति 'बाह्य' और 'आभ्यन्तर' दो प्रकारसे है। . दो प्रकारकी निवृत्ति इन्द्रियाँ बाह्य निवृत्ति इन्द्रिय-निर्माणनाम कर्मसे रचित और अंगोपांग नाम कर्मसे निष्फल बनी, पुद्गैलस्कंधोसे दीखती, बाह्यरचना विशेष / हरेक जीवोंके उन उन इन्द्रियोंके स्थान पर अथवा शरीरके अमुक स्थानमें इन्द्रिय सूचक बाह्य आकृति-रचना विशेष हो वह / जिसे देखकर यह कान है, यह आँख है, ऐसा समझा जा सके वह / जैसे कान पपडीसे कानको, अंडाकार जैसी आकृतिसे आँखको, अमरुद जैसी आकृतिसे नाकको पहचान लेते हैं। लेकिन यह बाह्य निवृत्ति बाह्यरचना हरेक जीवोंके समान नहीं होती। मनुष्यकी वाह्य इन्द्रियोंके आकारोंमें न्यूनाधिक भिन्नता मालूम पड़ती है। पशु पक्षी आदिके नाक, कान आदिमें भिन्नता होती है। सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रियके लिए बाह्य निवृत्तिकी आवश्यकता स्वीकार्य नहीं है, इस बाह्य निवृत्तिके भिन्न भिन्न जीवाश्रयी आकार भिन्न होनेसे, उसके आकारोंका नियत वर्णन अशक्य होनेसे उसके आकार नहीं कहे हैं। आगे जो आकार _ कहे जाएँगे वे आभ्यन्तर निवृत्ति नियताकार होनेसे उन्हें अनुलक्षित करके ही कहेंगे / आभ्यन्तर निवृत्ति इन्द्रिय-इन्द्रियोंके अन्दरके भागकी रचना / यह रचना दिखाई देती इन्द्रियोंके वाह्य आकारके अंदर, अथवा तो आकारके अंतर्गत देहके अवयवरूप भिन्न भिन्न आकारमें रचित, विषय ग्रहण करनेकी शक्तिवाले, अपनी आँखसे अगोचर 531. पुद्गल विपाकी निर्माणनामकर्मरूपी सुतारसे आयोजित और अंगोपांगनामकर्मसे निष्पन्न, इन्द्रिय ऐसे शब्दसे परिचित, आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त, कर्णशकुलि ( कान पपडी, गोलक ) इत्यादि आकार विशेष वह बाह्य निवृत्ति, और उत्सेधांगुलके असंख्यातवाँ भागप्रमाण शुद्ध आत्मप्रदेशोंकी निश्चित स्थानमें चक्षु आदि इन्द्रियोंके आकारमें रचित जो रचना, वह आभ्यन्तर निवृत्ति / यह अर्थ आचारांग वृत्तिकारका है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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