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________________ * पांचों इन्द्रियोंका स्वरुप . * 235 . भगवंत तप और संयमकी सर्वोच्च कोटिकी साधनाके अन्तमें प्राप्त किये गए केवलज्ञान द्वारा प्रत्येक द्रव्यों-पदार्थों को आत्म प्रत्यक्ष करते हैं, तब सूक्ष्म परमाणुसे लेकर अनेक पदार्थों का अद्भुत विज्ञान और रहस्य उनकी वाणीमें प्रकट होते हैं। उस शास्त्रवाणीमेंसे इन्द्रिय विषयक उपलब्ध माहितीमेंसे सर्वज्ञ कथित आवश्यक रसप्रद माहिती दी जाती है / इन्द्रियोंके साथ संसारी प्राणी मात्रका अविनाभावि संबंध है। क्योंकि जहाँ जहाँ इन्द्रियाँ हैं वहाँ वहाँ जीव है। इन्द्रिय अर्थात् क्या ? तो इसके लिए प्रथम इन्द्रिय-शब्दका अर्थ समझना चाहिए 'इदि-या इदुपरमैश्वर्य' इस धातु परसे रक् प्रत्यय लगाकर 'इन्दैनात् इति इन्द्रः' अर्थात् सर्व उपलब्धि या सर्व उपभोगके परमेश्वर्यसे शोभित वह इन्द्र / वह कौन ? तो देवलोक के इन्द्र नहीं लेकिन यौगिक अर्थसे 'आत्मा' ही लेना है। और सच्ची तरहसे लोकोत्तर पस्मैश्वर्यवान् वही है। सर्व पदार्थोकी जानकारी और विविध भावोंके उपभोगका ऐश्वर्य आत्माको ही होता है। इन्द्रस्य लिङ्ग-चिह्नमिति इन्द्रियम्, इन्द्रन सृष्टमिन्द्रिटम् इस व्युत्पत्तिसे 'इन्द्र' अर्थात् आत्मासे सर्जित वस्तु वह इन्द्रिय / फलितार्थ यह कि आत्माका परिचायक जो चिह्न अथवा जिससे आत्मा जैसी वस्तुकी सिद्धि हो उसे 'इन्द्रिय' कहा जाता है। . इन्द्रियोंसे आत्मा किस तरह साबित हो सकती है ? तो इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और कर्ण ये पांच हैं। इनमें स्पर्शन ( त्वचा या चमडी) द्वारा गरम या ठंडा, कोमल या कठोर, रसनाके द्वारा खट्टा-खारा, मीठा-कडुआ, घ्राणके द्वारा सुगंध -दुर्गध, चक्षुके द्वारा रूप-रंगका और कर्णके द्वारा शब्द या आवाजके जो जो विषय हैं उन्हें जाननेवाली और अनुभव करनेवाली आत्मा ही है। इन्द्रियोंके उन उन विषयोंका अंतिम अनुभव आत्मा ही करती है। यद्यपि आत्मा अपूर्ण स्थितिमें होनेसे उसे सीधा सीधा अनुभव नहीं होता लेकिन इन्द्रियों द्वारा होता है। लेकिन वह होता है आत्माको ही, नहीं कि इन्द्रियोंको और अगर इन्द्रियोंको होता है ऐसा माने तो 526. परलोकमें अपान्तराल गतिमें मात्र आयुष्यप्राण होता है और वह प्राण आगामी भवका समझना / आयुध्यप्राण के लिए पर्याप्तिकी जरूरत नहीं होती क्योंकि उसे किसी शक्ति-बलकी जरूरत नहीं होती / एक दूसरे भवके आयुष्य नामके प्राण प्राणके बिच कोई अंतर नहीं पडता, एक पूर्ण होते ही दूसरा हाजिर ही होता है / इसके बिना संसारी जीवकी गति ही रुक जाए / 527. उपयोग अर्थात् आत्माको होता विविध प्रकारके भावोंका अनुभव / 528. इन्द्रेणाऽपि दुजयं तत् इन्द्रियम् / इन्द्र अर्थात् आत्मा / आत्मासे भी मुश्किलसे जीती जा सके वह / ऐसी भी व्युत्पत्ति हो सकती है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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