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________________ * 234 . . .श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * संसारी जीव इस द्रव्यप्राणके आधार-वलसे ही उस उस जीवायोनिका जीवन जी सकते हैं और इसी लिए पहले जणाया है कि प्राण ही जीवन है। जिन जिन जीवोंके जिस जिस संख्यामें प्राण कहे हैं, वे प्राण विद्यमान हों तो ही जीव जीवित रहता है, अथवा 'जी रहा है। ऐसा कहा जाता है। ये प्राण समय मर्यादा या अकस्मात आदि कारणसे नाश होने पर 'जीवकी मृत्यु हुई ' कहा जाता है। सारांश जीवन मरणकी संक्षिप्त व्याख्या 'उस उस भव विषयक द्रव्य प्राणोंका योग वह ( आत्माका) जीवन और विवक्षित भवके प्राणोंका वियोग वह मरण / ' यद्यपि आत्माका जन्म नहीं और मृत्यु भी नहीं। ____ वह तो अजन्मा और अमर है, शाश्वत है। किसी समय कोई 'आत्मा मर गई' ऐसा वाक्य बोल देता है। लेकिन वह सच्ची परिस्थितिके अज्ञानके कारण, किंवा स्थूल व्यवहारसे बोलता है। लेकिन उसके पीछेकी ध्वनि तो 'प्रस्तुत भव प्रायोग्य प्राणोंका त्याग करके औत्मा परलोकमें गई' यही व्यक्त होती है। द्रव्य प्राण कितने हैं ? द्रव्यप्राणोंकी संख्या दस है। वह इस तरह-पांच इन्द्रियाँ-स्पर्शन, रसन, घाण, चक्षु और कर्ण / तीन बल-मनोबल, वचनवल और कायबल / श्वासोच्छ्वास और आयुष्य / यहाँ क्रमशः उसका विस्तृत वर्णन दिया जाता है। प्रथम पांच इन्द्रियोंकी व्याख्या दी जाती है। __ जैसे वैज्ञानिक यांत्रिक साधनों और रसायणों द्वारा एक एक पदार्थका सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, और पदार्थके विविध पहलुओंका ख्याल देते हैं, वैसे अर्हन् तीर्थकर 524. आत्माके द्रव्यप्राणको नुकसान पहुँचाना या उसका वियोग करना उसका नाम हिंसा / द्रव्यप्राणोंके रक्षणके साथ जीवका रक्षण करना उसका नाम अहिंसा। हिंसा अहिंसाकी ऐसी व्याख्या की जाती है और उसमें 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा, तदऽभावेऽहिंसा' इस सूत्रकी साक्षी दी जाती है। अलबत्ता अपेक्षासे यह बात बराबर है परंतु यह स्थूल व्याख्या है। लेकिन सच्ची व्याख्या यह है कि सिर्फ अन्य जीवके द्रव्यप्राणोंको ही नहीं परंतु अपने ज्ञानादि भावप्राणको हानि पहुँचाना भी हिंसा है / इतना ही नहीं लेकिन अपनी आत्माके सम्यग्ज्ञानादि गुणोंके विकासके लिए पुरुषार्थ न करना, प्रमादाधीन बनकर उपेक्षा या उदासीनता दिखाना वह सच्ची हिंसा है। और उसका विकास या रक्षण करना सच्ची अहिंसा है। अतः ही 'प्राणव्यपरोपणं०' उमास्वातीय सूत्र में प्राणके आगे द्रव्य या भाव ऐसा कोई विशेषण नहीं लगाया। अतः प्राणसे द्रव्य ऊपरांत भावप्राण लेने ही हैं / मुख्यको गौण और गोणको मुख्य समझा गया, माना गया, परिणाम स्वरूप भावप्राण तरफकी दृष्टि गौण बन गई / परंतु उसका विचार विकास प्रत्येक आर्यके लिए स्वाभाविक धर्म बनना चाहिए / 525. उपलब्धि अर्थात् जाननेकी शक्ति, कर्मावरणका अभाव होनेसे आत्मा सर्व वस्तुओंको जान सकती है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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