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________________ .228. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . जिस क्षण पर आता है उस क्षण पर उस आत्माके कार्मण काययोग अवश्य होता है। किसी भी प्रकारका योग अगर न ही हो तो आत्मा अक्रिय गिनी जाती है और अक्रिय आत्मा किसी भी प्रकारके पुद्गलोंको ग्रहण नहीं करती। कार्मण काययोग अथवा औदारिक काययोग आदि कोई भी काययोग हो तो ही आत्मप्रदेश चलित अवस्थावाले होते हैं और ऐमी चलित अवस्थाके कारण ही आत्मा शरीरादि योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करती है। ...2. उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे ही प्रत्येक जीवके उस उस भवप्रायोग्य औदारिक शरीर +लब्धि, (देव-नारकीके वैक्रिय शरीर लब्धि ) इन्द्रियलब्धि, श्वासोच्छ्वासलब्धि, (दोइन्द्रियसे असंशि पंचेन्द्रिय तक) भाषालब्धि और (संक्षि पंचेन्द्रियके) मनोलब्धि होनेके साथ उस लब्धिके कारणभूत औदारिक शरीर नामकर्म, वैक्रिय शरीर नामकर्म, श्वासोच्छ्वास नामकर्म, मतिज्ञानावरण-श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम विशेषतः अवश्य होता है। 3. आहारपर्याप्तिका कार्य ग्रहण किए जाने पर शरीर योग्य पुद्गलोंको बल और रसके विभागमें बांटनेका है। रसरूपमें वर्तित पुद्गलोंको सात धातुमय शरीररूपमें परिणत करना शरीरपर्याप्तिका कार्य है। सात धातुरूपमें परिणत हुए पुद्गलोंको उन उन विषयोंको ग्रहण करनेमें और जानने में असाधारण कारणरूप वर्तित अभ्यन्तर द्रव्येन्द्रिय (उपलक्षणसे बाह्य द्रव्येन्द्रिय) रूपमें परिणत करना इन्द्रियपर्याप्तिका कार्य है। . ' 4. आहारपर्याप्तिकी अपेक्षा शरीरपर्याप्तिका कार्य सूक्ष्म होनेसे अधिक समयकी जरूरत पड़ती है, शरीरपर्याप्तिकी अपेक्षा इन्द्रियपर्याप्तिका कार्य सूक्ष्मतर होनेसे उससे भी अधिक समय चाहिए। __5. इन तीनों पर्याप्तिओंमें औदारिक अथवा वैक्रिय पुद्गलोंका (आहारक शरीर प्रसंग पर आहारक वर्गणाके पुद्गलोका) ही ग्रहण और परिणमन है, परंतु बादकी तीन पर्याप्तियोंकी तरह पुद्गल भिन्न भिन्न नहीं हैं। 6. उच्छ्वासलब्धि अर्थात् श्वासोच्छ्वासकी योग्यता संसारी सर्व जीवोंके अवश्य होती है और उसमें कारणभूत श्वासोच्छ्वास नामकर्म भी सर्व संसारी जीवोंके होता है, परंतु श्वासोच्छ्वासकी शक्ति हरेक संसारी जीवमें नहीं होती। (श्वासोच्छ्वास) पर्याप्त नामकर्मके उदयवालोंके ही श्वासोच्छ्वास की शक्ति (और कार्यरूप प्रवृत्ति) होती है। लेकिन (श्वासोच्छ्वास) अपर्याप्त नामकर्मके उदयवालोंके उच्छ्वास लब्धि और उसमें कारणभूत उच्छवास नामकर्म होने पर भी श्वासोच्छवासकी शक्तिका अभाव होता है। भाषकलब्धि और मनोलब्धि ( विचारलब्धि ) इसमें नामकर्मकी तथा अन्य अघातिकर्मकी कोई भी प्रकृति कारण नहीं है, लेकिन ज्ञानावरण-दर्शनावरणका क्षयोपशम इस उभय लब्धिमें कारण हो, ऐसा मानना अधिक उचित लगता है। इन दोनों प्रकारकी लब्धियोमेसे भाषकलब्धि दोइन्द्रियसे समिपंचेन्द्रिय तकके सर्व जीवों में होती है और मनोलब्धि + योग्यता।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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