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________________ •पर्याप्ति संबंध बारहवाँ परिशिष्ट. .227. आहारादि पुद्गल समूहके ग्रहण द्वारा प्रत्येक आत्मा साथ साथ यथायोग्य समयमें ही आवश्यक अन्य जो कार्यों "उन्हें भी करनेके लिए छः प्रकारकी शक्तियोंको (अग्निपावर ) तैयार कर लेती है। और इन छः शक्तियों के द्वारा ही छः क्रियाओंका कार्य आजीवन शक्य बनता है। इन छः प्रकारकी शक्तियोंको (पावरोंको) उत्पत्तिके एक ही अंतर्मुहूर्तमें तैयार कर लेती है। जो जिंदगी तक कार्यरत रहती ही हैं। [339] श्री भीडभंजनपार्श्वनाथाय नमः ... पर्याप्ति विषयक स्पष्ट तारण-परिशिष्ट नं. 12 टिप्पणी-पर्याप्तिके विषय में बहुत विशद् विवेचन दिया जा चुका है। परंतु उसका तारण करके स्पष्टतापूर्वक और सरल करके दिया जाए तो इस विषयको समझना अधिक सुगम हो जाए। अतः छूट पूट तात्पर्यों द्वारा यहाँ प्रस्तुत किया है। पर्याप्ति* और नामकर्मकी प्रकृतिमोंका क्या सम्बन्ध है वह भी समझमें आएगा। कोई भी जीव एक भवमेंसे च्यवित होकर (मरकर ) एकेन्द्रिय, द्विइन्द्रिय यावत् संशि पंचेन्द्रियके भवमेंसे किसी भी भवमें उत्पन्न हो कि तुरंत ही वह भवप्रायोग्य, महारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच् वासपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति इन छहों पर्याप्तियोंका अथवा जिस भवमें जितनी पर्याप्तियाँ हों उतनी पर्याप्तियोंका उत्पत्तिके प्रथम क्षणसे ही उस जीवको प्रारंभ होता है। आत्मा जिस क्षण उत्पत्तिस्थानमें आती है उसी क्षणसे किन किन पुद्गलोंका किस किस कारणसे उसे ग्रहण होता है और ग्रहण होनेके बाद उन पुद्गलोंमें जीवन पर्यंत जिनसे जिया जा सके और जीवका कार्य व्यवहार चल सके ऐसी क्या क्या जीवन शक्तियाँ-पर्याप्तियाँ प्रकट होती हैं उस बाबतका व्यवस्थित क्रम इस तरह है। ___ इस क्रमके निरूपणका प्रारंभ हो उसके पहले कतिपय मुख्य हकीकतें बताई जाएँ तो मका निरूपण समझनेमे बहुत सुलभता हो। 1. कोई भी संसारी जीवात्मा किसी भी गतिमें से च्यवकर (मरकर ) आयुष्यकर्म तथा गतिकर्मके बंधके अनुसार निश्चित हुए उत्पत्तिस्थानमें ऋजुगतिसे अथवा वक्रगतिसे 521. प्रतिसमय आहारग्रहण, यथायोग्य धातुरूप शरीर रचना, इन्द्रियोंकी रचना, श्वासोच्छ्वास ग्रहण, वचनोच्चार, मनन-विचार, जीवन निर्वाह के ये छः आवश्यककार्य गिने जाते हैं / अलग अलग जीव आश्रयी इन कार्योंमें न्यूनाधिकपन होता है। . * शरीरपर्याप्ति, काययोग, कायबल, शरीरनामकर्म वे चारों क्या है ? उनका परस्पर सम्बन्ध है क्या ? कार्य कारणभाव है ? या भिन्न भिन्न कार्यके वाचक हैं ? इसी तरह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, श्वासो० प्राण और श्वासो० नाम कर्म ये क्या क्या हैं ? इत्यादि बाबतोंको समझना भी जरूरी है। / / .
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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