SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 613
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * लब्धि और करण पर्याप्त-अपर्याप्ताकी व्याख्या * _ * 217 . - 3. करण अपर्याप्ताकी व्याख्या-जिस जीवने स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण अभी तक नहीं की है, परंतु वह उसे पूर्ण करेगा ही, लेकिन वहाँ तक वह करण अपर्याप्ता ही कहा जायेगा। इसका तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति स्थानमें समकाल पर स्वयोग्य पर्याप्तिकी रचनाका जो प्रारंभ हुआ है वह जहाँ तक समाप्त नहीं होता वहाँ तक जीव करण अपर्याप्ता माना जाता है। ___पूर्वोक्त लब्धि अपर्याप्त-पर्याप्त- इन दोनों जीवोंमें करण अपर्याप्तापन होता है, अर्थात् लब्धि-अपर्याप्ता जीवोंके लिए बहता था, अर्थात् मृत्यु और उत्पत्तिके बीचके समय पर और इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो वहाँ तक उन्हें करण अपर्याप्ता कहा जाता है। .. इसी प्रकार लब्धि पर्याप्ता जीव एक भवमेंसे दूसरे भवमें जब पसार होता है वहाँसे लेकर छः पर्याप्तिकी पूर्ण प्राप्ति नहीं कर सकता है वहाँ तक उसे करण अपर्याप्ता माना जाता है। इसमें लब्धि पर्याप्ता जीव तो प्रथम करण अपर्याप्ता होनेसे जब भी वह पर्याप्तिको पूर्ण करेगा तब करण पर्याप्ता तो बनेगा ही, जबकि लब्धि अप. र्याप्ताके लिए तो करण पर्याप्ताका सवाल उठता ही नहीं है। 4. करण पर्याप्त-समकालमें प्रारंभकी हुई स्वयोग्य सर्व पर्याप्तियोंको पूर्ण करने के बाद ही जीव करणपर्याप्ता कहा जाता है। यह सब देखते हुए हमें यह जरूर लगता . हैं कि लब्धि पर्याप्ता ही करण पर्याप्ता हो सकता है। - लब्धि, करण, पर्याप्त-अपर्याप्तकी काल विवक्षा 1. जीवका लब्धि अपर्याप्तापनका काल, भवके प्रथम समयसे [जीव पूर्वभवसे छूटता है उसी समयसे लेकर ] उत्पत्ति स्थानमें आकर इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण नहीं करता वहाँ तक का अर्थात् कुल मिलाकर अन्तर्मुहूर्त्तका होता है। जिससे रास्ते पर चलते समय अर्थात् मृत्यु और उत्पत्ति (जन्म)के बीचके समयमें भी जीव लब्धि अपर्याप्त होता है। इस समय इसका भी जघन्योत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त्तका होता है। 2. लब्धि पर्याप्तपनका काल उत्पत्तिके समयसे लेकर अर्थात् पूर्वभवसे छूटता है वहाँसे लेकर नये जन्मके अन्त्य समय तक अर्थात् जीव जहाँ तक जिन्दा रहता है वहाँ तक का रहता है। इसमें यहाँ देवोंके लिए उत्कृष्टकाल तेंतीस सागरोपमका तथा मनुष्यों के लिए तीन पल्योपमका समझें / अतः राह पर चलता हुआ जीव अर्थात् मृत्यु और उत्पत्ति बृ. सं. 28
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy