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________________ * 216 . * श्री बृहतसंग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * नारकी लब्धि अपर्याप्ता नहीं होते, लेकिन लब्धि पर्याप्ता ही होते हैं। अतः वे इष्ट पर्याप्ति पूर्ण करते ही हैं / . लब्धि और करण पर्याप्ता और अपर्याप्ताके भेद पर्याप्ति समाप्त होनेके कालके लिए जीवके भी पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो भेद पडते हैं। वहाँ जो जीव स्वयोग्य [ जिसे जो हो वह ] पर्याप्तियाँ पूर्ण करके मृत्यु पाए तो जीव पर्याप्ता कहा जाता और दरिद्रने किये निष्फल मनोरथकी तरह जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण किये बिना मरे, तो वह जीव अपर्याप्ता कहा जाए, पर्याप्तपन प्राप्ति होना वह पर्याप्त नाम कर्मक उदयसे होती है और अपर्याप्तपन अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे जीवको होता है, इस तरह जीव के पर्याप्ता और अपर्याप्ता दो भेद मुख्य हैं। और इन भेदोंमें पुनः अवान्तर भेद भी है और ऐसे भेद चार हैं, वे इस तरह 1. लब्धि अपर्याप्ताकी व्याख्या-जो जीव स्वयोग्य पर्याप्तियोंको पूर्ण किये बिना ही मृत्यु पाएँ वे जीव पूर्वभवमें बांधे गए अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे, जब लब्धि अपर्याप्त हों तब एकेन्द्रियके पर्याप्ति चार, फिर भी चार पूर्ण न करके तीन पूर्ण करके ही [चलती चौथीमें ] मरण पा जाए। उसे लब्धि अपर्याप्त एकेन्द्रिय कहा जाता है / यहाँ इतना समझना कि तीन" पर्याप्तियोंको तो कोई भी जीव पूर्ण करता ही है लेकिन चौथी (एके० को) अथवा चौथी, पाँचवीं [विकलेन्द्रिय, असंज्ञी पंचे० को ] अथवा चौथी, पांचवीं, छठी ये तीन पर्याप्तियाँ [ संज्ञी पंचे० को] अधूरी ही रह सकती हैं। __2. लब्धि पर्याप्ताकी व्याख्या- जो जीव स्वस्वयोग्य जो जो पर्याप्तियाँ हों, उन्हें पूर्ण करके ही मृत्यु पाए उन जीवोंको [पर्याप्ति पूर्ण करनेके बाद या पहले भी] लब्धि पर्याप्ता कहा जाता / वे पूर्वभवबद्ध पर्याप्ति नाम कर्मके उदयसे ही स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण कर सकनेको समर्थ बनते हैं। 511. प्रथमकी तीन पर्याप्तियोंको सर्व जीव अवश्य पूर्ण करते हैं और शेष पर्याप्तियोंको करें या न करें / इसका कारण यह है कि जीव भवमें वर्तित हो वहाँसे परभवका आयुष्य बांधनेके बाद अन्तर्मुहूर्त उसी भवमें रहकर फिर मृत्यु पाकर परभवमें उत्पन्न होता है। क्योंकि परभवायुष्य प्रस्तुत भवमें ही बंधता और इसीसे उस परभवका स्थान यहाँ नियत करके ही जीवकी मृत्यु होती है / अब आयुष्यका बंध इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण करनेके पहले होता ही नहीं, इस कारणसे प्रथमकी तीन पर्याप्तियाँ पूर्ण करनेके बाद चौथी अधुरी रहे तब (अन्तर्मुहूर्त तक आयुष्यका बंध करके उसका अन्तर्मुहूर्त अबाधाकाल भोगने जितना जी कर ) मरण पाता है अतः चौथी पर्याप्ति अधूरी ही रहती है, इसलिए / सूचना-५११. के बाद सीधा टिप्पण नं. 521 समझना, बिचके 10 के टिप्पण नंबर रद समझना। क्योंकि अगाऊ 24 पन्ने जो छपे थे वे गूम हो जानेसे नया लिखना पडा, जिससे पुरानेमें दूसरे क्या टिप्पण मैने किये थे, वे याद नहीं हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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