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________________ * पर्याप्तिओंका स्वरुप और छः पर्याप्तिकी व्याख्या . .211. इस पर्याप्ति करणसे ही आहारादिकका स्वस्व विषयमें परिणमन-शरीर निवर्तन आदि क्रिया होती है। हम जान आए कि पर्याप्तियाँ देहधारी जीवोंको, जीवन जीनेकी शक्तिको प्रगट करनेमें या जीवन जीनेमें प्रबल कारणभूत हैं। और जीवन जीने के लिए वे असाधारण रूपमें आवश्यक और अनिवार्य साधनरूप है / पर्याप्तिकी सरल-स्पष्ट व्याख्या इस तरह है। पर्याप्ति अर्थात् शक्ति-सामर्थ्यविशेष / यह शक्ति पुद्गल द्रव्यके संचयसे प्रकट होती है। अब इसे स्पष्टतासे समझें / जीव किसी भी योनिमें उत्पन्न हो तब उत्पत्ति स्थानमें रहे जिन पुद्गलोंको प्रथम बार ही ग्रहण करे उन पुद्गलोंका शाश्वत नियम अनुसार जीव समय समय पर जिन पुद्गलोंको ग्रहण करता रहता है उनके साथ योग होता है, यह योग होनेसे एक विशिष्ट शक्ति–कार्यका निर्माण होता है। यह शक्ति जीव जिन जिन पुद्गलों को ग्रहण करता रहे, उन पुद्गलोंको दो विभागमें बाँटनेका कार्य बराबर बजाता है / अर्थात् गृहित पुद्गलोंमें से खल-मलादि प्रकारके योग्य पुद्गलोंको अलग कर देता है और रस प्रायोग्य हों उन्हें उस रूपमें अलग करता है। ऐसी पर्याप्तियाँ-शक्तियाँ छः हैं। वे इस तरह छः पर्याप्तियोंकी व्याख्या 1. आहार पर्याप्ति-उत्पत्ति प्रदेशमें आये हुए जीव जिस शक्तिसे उत्पत्ति स्थानमें रहे बाह्य ( ओजाहार) आहारके पुद्गलोंको ग्रहण करे और उन पुद्गलोंको खल और रसरूपमें परिणत करे उस शक्तिका नाम आहार- पर्याप्ति है। . खल अर्थात् आहार परिणमन (पाचन)की क्रिया द्वारा आहारमेंसे मल-मूत्रादि रूपसे तैयार हुआ असारभूत पुद्गलोंका समूह और रस अर्थात् खुराककी पाचनक्रियामें से ही सात . 505. जिस गतिमें जीवने जो शरीर धारण किया हो, उस शरीरका मृत्यु के बाद वियोग और विनाश हो जाता है और उस स्थूल शरीरमें रहा जीव जब परलोकमें विदाय लेता है तब उसके साथ 'तेजस' और ' कार्मण' के नामसे परिचित दो सूक्ष्म शरीर होते ही हैं / ये दो शरीर तो अनादिसे जीवके साथ रहे ही हैं / और मोक्ष न हो तब तक वे रहनेवाले हैं / जन्मस्थानमें जीव इन दोनों शरीरों के साथ उत्पन्न हो तब प्रथम जिस आहारका ग्रहण होता है वह मुख्यतया तैजस कार्मण काययोग द्वारा होता है / आहार पर्याप्ति उस समय अवान्तर कारणरूप होती है, परंतु आहार पर्याप्तिका प्रधान कार्य तो औदारिक नामकर्मसे ग्रहण किये आहारके पुद्गलों से उपर बताया वैसी योग्यतावाला बनाना यही है। 506. अपने शरीरमें मुखादि द्वारा जो खुराक जाती है वह प्रथम पेटमें जाती है और वहाँ जानेके बाद शारीरिक क्रियाएँ होती हैं इससे उसमें विभाग पड जाते हैं, एक खल रूपमें अर्थात् मल-मूत्र रूपमें और दूसरा रस रूपमें /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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