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________________ * बाह्ययोनिका स्वरूप . . 173 . योनिवाली स्त्रियाँ अत्यंत प्रबल कामामिवाली होनेसे उनमें इतनी सारी उष्णता रहती हैं कि उत्पन्न हुए गर्भके जीवका विनाश ही हो जाता है। यह योनि चक्रवर्तीकी मुख्य पटरानीरूप स्त्री रत्नके होती है / अतः ही कहा जाता है कि ब्रह्मदत्त चक्रीकी कामातुर बनी स्त्रीरत्न कुरुमतिके हस्तस्पर्शसे लोहेका पुतला भी द्रवीभूत हो गया अर्थात् गल गया। कूर्मोन्नता-कछुएके पीठकी तरह उपसी-उन्नत भागवाली योनि / इस योनिमें ही अरिहंत परमात्मा, वासुदेव चक्रवर्ती और बलदेव [ अर्थात् प्रतिवासुदेवको छोडकर शेष शलाका पुरुष ] निश्चिय उत्पन्न होते हैं / - वंशीपत्रा-जो योनि बांसके जुड़े दो पत्र समान आकारवाली हो वह / इस योनिमें शेष सर्व प्रकारके मनुष्य ही [ तिर्यंच नहीं, क्योंकि इन तीनों प्रकारका योनिकथन मनुष्यकी स्त्रीका ही है। ] उत्पन्न होते हैं, तिर्यच पशु-पक्षियोंकी योनियोंका बाह्याकार अनियत है, इसलिए कहा नहीं है। मनुष्य स्त्रीकी बाह्ययोनिका यह स्वरूप भी कहा / ____इस तरह योनिके संवृतादि भेद, आभ्यन्तर योनिके सचित्ताचित्तादि भेद और बाह्ययोनिके शंखावर्तादि भेद-प्रकार दर्शाये। इसके सिवाय शुभयोनि कौनसी और अशुभयोनि कौनसी ! वह भी आगमग्रन्थों में बताया है। शुभयोनि किसे कही जाए और अशुभयोनि किसे कही जाए, उसे वाचको स्वयं समझ सकते हैं। क्योंकि व्यक्तिकी उत्तमता और अधमता देखकर शुभाशुभपनका निर्णय सुखपूर्वक किया जा सकता है / [ 325] . . अवतरण-यहाँसे ग्रन्थकार बारह गाथाओं द्वारा आयुष्यकी मीमांसा प्रस्तुत करते हैं। 'आयुष्य या जीवन' यह एक ऐसी वस्तु है कि जो संसारके प्राणीमात्रको प्रिय . है। जीना किसे नहीं भाता ? अर्थात् सबको भाता है। मरना किसीको भी प्रिय नहीं , है, फिर भी सबको अप्रिय ऐसी मृत्यु को भेंटना ही पड़ता है। यह जीवन जो जिया .. जाता है, उसमें कारण आयुष्य नामका कर्म है। यह कर्म जिस प्रकारका हो वैसे जिया जाए। तब यह कर्म किस किस जातिका कैसे प्रकारका है ? उसका वर्णन सबको जानना आवश्यक होनेसे यहाँ से शुरू किया जाता है। इसमें प्रथम गाथामें आयुष्यमें उत्पन्न होती सात स्थितियोंको जैन सिद्धान्तकी शैली और परिभाषाद्वारा वर्णित करते हैं। - 474. कामातुर होकर स्पर्श करे तो ही लोहपुतलेका द्रवीभूतपन लें / सारा दिन हमेशा ऐसी उष्णता : नहीं रहती, वरना सुवर्ण-रत्नके आभूषण पहनती हैं उन्हें पहननेका असंभव ही हो जाए /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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