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________________ * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर * प्रमाण) होती है, वैसी 46 आठ उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकासे पुनः एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका होती है, आठ लक्ष्णलक्ष्णिकासे एक ऊर्ध्वरेणु होती है, आठ ऊर्ध्वरेणुसे एक 'त्रसरेणु' होता है, आठ त्रसरेणुका एक रथरेणु होता है, आठ रथरेणु मिलकर देवकुरु-उत्तरकुरुक्षेत्रके जीवोंका एक बालाग्र बालके अग्रभाग जितना प्रमाण होता है, और उसी बालाग्रको आठ गुना करनेसे एक रम्यकक्षेत्रके युगलिकका बालाग्र होता है, उसे आठ गुना करनेसे हैमवन्त और हैरण्यवन्त क्षेत्रके युगलिकका बालाग्र होता है, उससे आठ गुना मोटा पूर्वविदेह तथा पश्चिमविदेहके मनुष्योंका वालाग्र तथाविध क्षेत्र प्रभावसे होता है, उससे आठ गुना मोटा बालाग्र भरत, ऐरवत क्षेत्रके मनुष्योंका होता हैं और वैसे आठ बालाग्र एकत्र होनेसे एक ""लीखका माप होता है / आठ लीखें मिलकर एक जू (मस्तककी ज) प्रमाण होता है, आठ जू की मोटाई मिलकर एक यव (जौ) के मध्य भागकी मोटाईका माप आता है और आठ 'यवमध्य' मिलकर एक "उत्सेधांगुल [ अपना एक अंगुल] होता है। इस व्याख्यासे स्पष्ट होता है कि, अंगुलमाप अपनी उंगलीकी चौडाइका ही समझना है / व्यवहारमें भी चार-छः अंगुल प्रमाण कपडा मापनेका होता है तब अंगुलीकी चौडाइसे ही मापा जाता है। अतः जो लोग उत्सेधांगुल खड़ी उंगलीके पहले ___462. जीवसमासके सूत्रकार, प्रारंभसे ही अनंत परमाणु मिलकर एक उत्श्लक्ष्णलक्ष्णिका कहते हैं ये अनंत परमाणु व्यावहारिक या सूक्ष्म लेना इसे स्पष्ट नहीं करते / साथ ही अनंत उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका मिलकर एक श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका कहते हैं और उस प्रलक्ष्णप्रलक्ष्णिका को ही पुन: व्यावहारिक परमाणु कहते हैं। इस तरह दोनों रीतसे उनका कथन भिन्न पडता है / कुछ स्थल पर उत्प्रलक्ष्ण और लक्ष्णप्रलक्ष्णिका माप गिनतीमें ही नहीं लिया ये विवक्षाभेद हैं / 463. मलयगिरि सं. टीकामें आठ त्रसरेणु कहनेके बाद 'आठ त्रसरेणुसे एक बालाग्र, आठ बालाग्रसे लीख' इस तरह व्याख्या की है / 464. यह बालाग्र जन्मावस्थाका लेना या अन्यावस्थाका गिनना इसका स्पष्ट खुलासा नहीं मिलता। परंतु पल्योपमादिककी गिनतीमें मस्तक मुंडानेके बाद सात दिन तक बालाग्रका ग्रहण किया है, तदनुसार यहाँ भी सोचना उचित लगता है। 465. एक ही बालाग्रमें सूक्ष्मता और स्थूलताकी भिन्नता उस क्षेत्र तथा उस उस कालके प्रभावको आभारी है। अनुक्रमसे शुभ कालकी हानि होने पर केशगत स्थूलता विशेष बढती है / 466. यह अभिप्राय-संग्रहणी वृत्ति, प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, अनुयोगद्वार आदिका है / जबकि जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिके वृत्तिकार पूर्व-पश्चिम विदेहके आठ बालाग्रसे एक लीख होती हैं वैसा कहते हैं / 467. अनुयोग द्वारमें-'पाद' के बाद अंगुलकी संख्याके द्विगुण द्वारा अन्य माप भी दर्शाये हैं, लेकिन शलीभेद है परंतु तत्त्वसे वह एक ही है / 'भरतनाटय' में नीचे अनुसार प्रकार है। अणवः अष्टौ रज: प्रोक्तो तान्यष्टौ बाल उच्यते / बालास्त्वष्टौ भवेल्लिक्षा यूकालिक्षाष्टकं भवेत् // यूकास्त्वष्टौ यवः प्रोक्तः यवास्त्वष्टौ तथाङ्गुलम् / अङ्गुलानि तथा हस्तश्चतुर्विशतिरुच्यते // [भरतनाटय०, 2, 14-15]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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