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________________ * परमाणु तथा उत्सेधांगुलका मान * विशेषार्थ-उत्सेधांगुलकी व्याख्यामें कहा गया है कि वृद्धि पाता अंगुल वह उत्सेधांगुल / इस उत्सेधांगुलकी वृद्धिकी शुरुआत परमाणुसे होती है। यह परमाणु दो प्रकारका है, एक सूक्ष्म परमाणु तथा दूसरा व्यावहारिक परमाणु / इसमें सूक्ष्म परमाणुकी व्याख्या बताते ज्ञानी महर्षि कहते हैं कि सूक्ष्म परमाणु एक आकाशप्रदेश जितने प्रमाणवाला, जिस प्रमाणके दो विभाग केवलज्ञानी भी बुद्धिसे न कर सके ऐसा अविभाज्य, साथ ही अप्रदेशी तथा सर्वसे सूक्ष्म हैं। ऐसे सूक्ष्म अनन्त परमाणु एकत्र हों तब [निश्चयनयसे अनंत सूक्ष्म परमाणुओंसे बना हुआ सूक्ष्मस्कंध होता है और व्यवहारनयसे ] एक व्यवहार या व्यावहारिक परमाणु बना कहा जाए / ____ अति तीक्ष्ण ऐसे खड्गादि शस्त्रसे जिस अणुको छिदनेको, छिद्र करने या भिदनेके लिए अर्थात् दो भाग करने के लिए कोई भी शक्तिमान नहीं है / उस अणुको परमाणु [घटादिकी अपेक्षासे सूक्ष्म अणु] कहा जाए, ऐसा सिद्ध-सर्वज्ञ पुरुषो अपने ज्ञानचक्षुसे निश्चयपूर्वक हमसे कहते हैं। और उसे सर्व प्रमाणोंका आदिभूत अंश कहते हैं। - सूक्ष्म परमाणुकी अपेक्षासे व्यावहारिक परमाणुके भी बुद्धिसे ज्ञानी अनंत भाग करते हैं और व्यावहारिक परमाणु भी अनंत प्रदेशी होते हैं। [315] ___अवतरण-अब परमाणुकी शुरुआत करके उत्सेधांगुलका मान बताते हैं / परमाणू तसरेणू, रहरेणू वालअग्ग लिक्खा य / जूअ जवो अट्ठगुणो, कमेण उस्सेहअंगुलयं // 316 // अंगुलछकं पाओ, सो दुगुण विहत्थी सा दुगुण हत्थो / चउहत्थं धणु दुसहस, कोसो ते जोअणं चउरो // 317 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् सुगम है / // 316-317 // यहाँ ग्रन्थकारने गाथालाघवकी बुद्धिसे परमाणुसे सीधा त्रसरेणुका प्रमाण कहा, लेकिन परमाणु और त्रसरेणुके बिचके उत्श्लक्षणश्लक्ष्णिका आदि प्रमाण नहीं कहे, फिर भी हम तो वह भी ग्रन्थान्तरसे समझ लें। .. विशेषार्थ-पूर्वगाथामें व्यावहारिक परमाणुका स्वरूप कहा / गत गाथामें कहे गए ऐसे "अनन्तव्यावहारिक परमाणुसे एक उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका ( यह भी अत्यन्त सूक्ष्म . 460. अनंत सूक्ष्म परमाणु विस्त्रसा परिणामसे संघातविशेषको जब पाए तब उसका एक 'व्यावहारिक परमाणु' बना कहा जाए / 461. श्री मलयगिरिजी संग्रहणीकी टीकामें आठ व्यावहारिक परमाणुसे एक उल्लक्ष्णश्लक्ष्णिका कहते हैं / उन्होंने कहाँका प्रमाण देखकर लिखा होगा वह ज्ञानीगम्य है, क्योंकि अन्य आगमग्रन्थोंमें बहुधा उपरोक्त कथन ही देखा जाता है, तो भी इस गाथाके 'अट्टगुणो' इस शब्दसे उनका भी आठ आठ गुना करनेका उद्देश हो तो वह ज्ञानीगम्य /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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