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________________ पुद्गलपरावर्तका स्वरूप गाथा 5-6 [ 53 कालमें अस्पृष्ट ] ऐसा अपूर्व ही आकाशप्रदेश लें। यह पंचसंग्रहका मत है। 'शतककर्मग्रन्थवृत्ति के मत तो मृत्यु-कालकी अवगाहना प्रमाण सर्वप्रदेश गिनती में लेना ऐसा बताता है, इससे काल अल्प होता है और प्रथमके मतसे बहुत काल होता है ऐसा यथायोग्य स्वतः सोच लें / // सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल-परावर्त // 4 // पूर्व बादरक्षेत्रपुद्गलपरावत में तो, किसी भी स्थानवर्ती नवीन नवीन जिस आकाशप्रदेशमें जीवका मरण होता था, उस आकाशप्रदेशकी गिनती होती थी, परन्तु इसमें तो एक जीव प्रथम जिस आकाशप्रदेशमें मरण पाकर पुनः “किसी भी स्थानके आकाशप्रदेश पर मरण प्राप्त करे तो उसकी गणना न करके" जब प्रथम मृत्यु पाये हुए आकाशप्रदेशके साथके ही (दूसरे) आकाशप्रदेशमें मृत्यु पाये तब उस आकाशप्रदेशकी गणना की जाय, अर्थात अनेक 'मरणोंसे दूरदूरके स्पृष्टआकाशप्रदेशोंकी गणना न करके, आकाशप्रदेशोंकी पंक्तिमें प्रवर्तमान आकाशप्रदेशों पर पहला, दूसरा, तीसरा ऐसे क्रमशः आकाशप्रदेशको मृत्युसे स्पर्श करे इस प्रकार अनुक्रमसे मरे, इस तरह आकाशप्रदेशोंको स्पर्श करते करते समग्र आकाशप्रदेश जब क्रमशः मृत्युसे स्पर्शित हो जाए तब 'सूक्ष्मक्षेत्रपुद्गलपरावर्त ' हो। // बादर-'काल'-पुद्गल-परावर्त // 5 // कोई भी एक जीव उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणीके आरंभके प्रथम समयमें मरण पाकर, वही जीव दूसरी बार दूरके अर्थात् 100 वें, समय पर मरण पाकर, फिर पुनः उससे दूरके 500 वें, समय पर मरण पाया, इस तरह अनुत्क्रमसे अस्पृष्ट (स्पर्शित नहीं) अपूर्व समयोंमें मरण पाये, ऐसे एक कालचक्रके ( उत्सर्पिणी अवसर्पिणीके ) सर्व समय मरणसे (बिना क्रमके) स्पर्शित हो जाए तब बादर-'काल'-पुद्गल-परावर्त हो।। // सूक्ष्म-'काल'-पुद्गगल-परावत्ते // 6 // पूर्व अनुत्क्रमसे कालचक्रके समयोंकी स्पर्शनामें गणना की। इस भेदमें तो उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणीके प्रथम समय पर एक जीवका मरण हुआ, पुनः कुछ समयके बाद उसी उत्सपिणी अथवा अवसर्पिणीके दूसरे समय फिर मरण हुआ, तीसरी बार कतिपय कालके बाद तीसरे समय पर मरण हुआ, इस तरह यहाँ तीन समयों की गणना की जाय। परंतु पहला, दूसरा, तीसरा आदि समय वर्ण्य करके कालचक्रके किन्हीं समयों में जितनी बार मरण पाया, उन सबकी गणना न करें / एक जीवाश्रयी कमसे कम एक समय गणनामें लेते एक कालचक्र तो अन्तमें होता ही है। ऐसा करते जब वह जीव कालचक्रके समग्र समयोंको अनुक्रमसे स्पर्श कर ले तब ‘सूक्ष्म-काल-पुद्गलपरावर्त हो /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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