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________________ 52 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी * [ गाथा-५-६ श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण इन सात-५ वर्गणाओं में से किसी एक वर्गणारूपसे, सर्व पुद्गलोंको ग्रहण करें और. छोड़े, तभी यह सूक्ष्म द्रव्यपुद्गलपरावर्त हो सकता है परन्तु अमुक समय पर विवक्षित वर्गणाके पुद्गलोंको स्पर्श करके दूसरी वैक्रियादि भिन्न-भिन्न वर्गणासे पुद्गल ग्रहण करने लगा, साथ ही पुनः प्रथमकी [जो विवक्षित हो वह ] वर्गणासे पुद्गल ग्रहण शुरू किया। इस तरह बीच-बीचमें दूसरी वर्गणाके पुद्गल ग्रहण करें तो गिनतीमें न लिये जाँय अर्थात् वह गिनती गलत सिद्ध हो / लेकिन लोकाकाशवर्ती सर्व पुद्गल परमाणुओंको विवक्षित किसी भी एक ही वर्गणारूपसे परिणीत करके छोडे तो उसे 86" सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त' कहते हैं / इस तरह वैक्रियवर्गणासे पुद्गलोंको ग्रहण करके छोड़े तब 'वैक्रिय-द्रव्य-पुद्गल' कहते हैं। ऐसे जिस जिस वर्गणासे लोकाकाशवर्ती पुद्गलोंको ग्रहण करनेपूर्वक छोडे तब उस उस प्रकारका 'पुद्गलपरावर्त' काल होता है। // बादर-क्षेत्र-पुद्गल-परावर्त // 3 // __ क्षेत्र से लोकाकाश लेनेका है और उसके प्रदेश श्रेणिबद्ध और असंख्य है। अर्थात् एक कोई जीवविशेष, चौदहराजलोकके सर्व आकाशप्रदेशोंको मृत्युकालमें मृत्युकालसे इस प्रकार स्पर्श करे कि वह एक आकाशप्रदेश गिनतीमें आये, लेकिन इतना विशेष है कि प्रथम जिन आकाशप्रदेशों पर मृत्यु हुई हो उन्हींसे किसी आकाश.प्रदेश पर पुनः मृत्यु हो तो वह आकाशप्रदेश गिनतीमें न आवे / ऐसे क्रमसे या उत्क्रमसे [किसी भी स्थान पर ] लोकका कोई भी आकाशप्रदेश मृत्युसे स्पर्श किये बिना न रहे तब ‘बादरक्षेत्रपुद्गलपरावर्त' होता है। प्रश्न-जीवकी अवगाहना असंख्य आकाशप्रदेशप्रमाण है, अतः जीव मृत्यु-काल पर असंख्य-आकाशप्रदेशोंको स्पर्श करता है तो फिर आप एक आकाश-प्रदेशकी स्पर्शनासे गिनती किस तरह गिनते हैं ? उत्तर-यद्यपि मरण-काल पर अवगाहनाश्रयी जीव असंख्यआकाशप्रदेशोंको स्पर्श करता है, परन्तु यहां तो उनमेंसे किसी भी एक ही आकाशप्रदेशकी गिनती करना, लेकिन सर्व स्पृष्टप्रदेश नहीं गिनना। और साथ ही मृत्युकाल पर स्पर्शित आकाशप्रदेशोंमेंसे जो पूर्वका विवक्षित स्पृष्टआकाशप्रदेश हो उसे यहाँ गिनतीमें न लेकर पूर्व अस्पृष्ट [ किसी भी मृत्यु 85. सातों वर्गणाओंका अल्पबहुत्व शतककर्मग्रन्थादि वृत्तिके द्वारा जाने / .. 86. अन्य आचार्य सात वर्गणासे पुद्गलपरावर्त्त नहीं गिनकर औदारिक, वैक्रिय, तैजस. और कार्मण इन चारोंको ही वर्गणाश्रयी ' सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावर्त'का प्रमाण बताते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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