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________________ * सिद्धिगमनमें अंतर कब और कितना? . . विशेषार्थ-सिद्धिगतिमें जघन्यविरह एक समयका ही पड़ता है / समय पूर्ण होने पर पुनः समय समय पर असंख्य जीव मोक्षमें बहा करते हैं / अब उत्कृष्ट विरहकाल कितने समयका ? वह कहते हैं कि छ: मासका, अर्थात् किसी कालमें कोई भी जीव मोक्षमें न जाए ऐसा विरहकाल उत्कृष्टसे छः मासका भी आ जाता है / सिद्धिगतिमें गए जीवोंका च्यवनविरह होता ही नहीं है, क्योंकि वे शाश्वतसादिअनंत स्थितिवाले होनेसे उनका च्यवन नहीं हो सकता, साथ ही च्यवन-अवतरण के हेतुभूत कर्मोंको उन आत्माओंने निर्मल कर डाला है / दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाडुरः / कर्मबीजे तथा दग्धे, नारोहति भवाङ्करः // "जिस तरह बीज अत्यन्त जल जाने पर उसमेंसे नये अंकुर प्रकट नहीं होते उसी तरह कर्मरूपी बीज अत्यन्त दग्ध होने पर भवरूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होते"। अतः कारणभूत कर्म नष्ट होते ही, उसके कार्यरूप संसार स्वतः नष्ट होता ही है / [ 277 ] अवतरण-इस तरह मर्यादित कितनी कितनी संख्या पर कितने कितने समय यावत् मोक्षमें जाने पर विरहकाल प्राप्त हो ? यह कहते हैं / अड सग छ पंच चउ तिनि, दुन्नि इको य सिज्झमाणेसु / बत्तीसाइसु समया, निरंतरं अंतरं उवरिं // 278 // बत्तीसा अडयाला, सट्टि बावत्तरी य अवहीओ / चुलसीई छन्नउई, दुरहिअमटुत्तरसयं च // 279 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् // 278-279 // विशेषार्थ--एक समयमें ही एक, दो, तीनसे लेकर बत्तीसकी संख्या तकके जीव निरंतर सिद्ध हों अर्थात् बिना अंतरके सतत मोक्षमें जायँ तो आठ समय तक ही जाय / बाद में नौवें समयमें कोई भी जीव मोक्षको प्राप्त ही नहीं करता, इस एक समयका अंतर अवश्य पड़ता ही है / तत्पश्चात् दसवें समयसे भले ही पुनः बत्तीस-बत्तीस सिद्ध होते जायँ परंतु वह प्रक्रिया आठ आठ समय तक ही चालू रहती है / फिर जघन्यसे एक समयका अंतर अवश्य पडता ही है / - बत्तीस के बाद तेंतीससे लेकर अडतालीस तकके जीव समय समय पर सिद्ध होते जायँ तो सात समय तक, फिर समयादिकका अंतर पड़ता है, .49 से प्रारंभ करके 60 तक के ( अर्थात् किसी समय 49, दूसरे समय 50-53-59, किसी समय अंतमें 60) बृ. सं. 14
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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