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________________ 50 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 / 4. सुषमदुःषम आरा-सुख अधिक, दुःख कम वह / यह आरा अवसर्पिणीके तीसरे आरेके समान समझें। इस आरेमें तीन भागकी कल्पना करें। उनमें पहले विभागमें राजधर्म, चारित्र, अन्य दर्शनानुचार्या के सर्व धर्म तथा बादर अग्नि विच्छेद होंगे। इस आरेके प्रारंभके 89 पखवाड़े बीतने पर उत्सर्पिणीके २४वें तीर्थकर तथा अन्तिम चक्रवर्ती उत्पन्न होते हैं। बादके दूसरे और तीसरे दोनों भागों में जैसा अवसर्पिणीमें कहा है वैसे युगलिक धर्मकी प्रवृत्ति पुनः शुरू होती है। 5. सुषम आरा-यह आरा अवसर्पिणीके दूसरे आरेके समान भावोंवाला समझें / / इस आरेमें केवल सुख ही होता है। 6. सुषमसुषम आरा-यह आरा जिसमें केवल बहुत सुख हो वह अवसर्पिणीके प्रथम आरेके समान सर्व प्रकारसे विचारें-समझें, जिसके स्वरूपके बारेमें अवसर्पिणीके वर्णन-प्रसंगमें कहा गया है। पांचवें-छठे दोनों आरेमें युगलिक मनुष्यों और तिर्यचोंका अस्तित्व विचार लें / इस तरह उत्सर्पिणीके 6 आरोंका स्वरूप बतलाया गया है। . ___ इस प्रकार दस कोडाकोडी सागरोपमकी अवसर्पिणी और दस कोडाकोडी सागरोपमकी उत्सर्पिणी मिलकर एक कालचक्र होता है। जिसके लिए कहा है कि___“कालो द्विविधोऽवसर्पिण्युत्सर्पिणीविभेदतः / सागरकोटिकोटीनां, विंशत्या स समाप्यते // 1 // अवसर्पिण्यां षडश उत्सर्पिण्या त एव विपरीताः / ___एवं द्वादशभिररैर्विवर्तते कालचक्रमिदम् // 2 // " [हैम० को० का० 2] // पुद्गलपरावर्तका संक्षिप्त स्वरूप // अवतरण-पहले अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीका स्वरूप दिखाया है, अब उससे बढकर काल 'पुद्गलपरावर्त' नामका है। और वह चार अथवा सूक्ष्म-बादर भेदसे आठ प्रकारका है, उसका यत्किचित् स्वरूप दर्शित किया जाता है // बादर-' द्रव्य '-पुद्गल-परावर्त // 1 // पुद्गलपरावर्त अर्थात् पुद्गलानां परावतः यस्मिन् कालविशेषे सः पुद्गल-परावर्त्तः / 81. 'सुहुमद्धायरदसकोडाकोडी, छअराऽवसप्पिणुसप्पिणी / ता दुन्नि कालचक्कं; वीसायरकोडिकोडीओ // 1 // ' [ कालसप्ततिका ]
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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