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________________ * 100. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . भी अधोलोक शब्दसे नरक न समझकर ‘अधोग्राम ' स्थान समझना / अर्थात् मेरुपर्वत की पश्चिमदिशा की तरफ समभूतला से क्रमशः नीचे उतरता हुआ एक भूभाग आता है / वह पृथ्वी नीची नीची होती 42,000 हजार योजन पर एक हजार योजन गहरी होती हैं और वह भूमिभाग महाविदेहक्षेत्रमें आया है जिसे कुबडीविजय कहा जाता है / वहाँ तीर्थकरादिक का सद्भाव होता है और उस समय तीर्थकर आदि आत्माएँ मोक्ष में जानेवाली होती हैं / / और तिर्यगलोकमें से उत्कृष्टा एक समय में 108 मोक्ष में जाती है। तिर्यगलोकमेंसे सामान्यतः एक समय में 108 मोक्ष में जाए ऐसा कहा, परंतु हरेक स्थानसे 108 जाए ऐसा नहीं होता। तिर्यग्लोकमें भी कर्मभूमिसे आये; पुल्लिंग वैमानिक निकायसे आए, मध्यम अवगाहनावाले, साधुवेष [ जैनमुनिवेष-स्वलिंग] वाले और वे भी पुरुष ही होने चाहिए, कालसे उत्सर्पिणीका तीसरा और अवसर्पिणी हो तो चौथा आरा अवश्य हो; इस तरह संपूर्ण आठ विशेषणवाले ही, क्षपित कर्मवाले होकर एक समय पर 108 मोक्ष में जाते हैं। तिर्यगलोक में भेद करके सोचने पर कोई उत्तम जीव देवादिक के संहरणादिकसे लवणादिक समुद्र में फेंका जाए और उसी समय जलमें स्पर्श होने के पहले अन्तरालमें अति उत्कृष्टवीर्योल्लास के द्वारा त्वरित घाती कर्मों का क्षय करके अन्तकृत् केवली होकर, जलमें डूबते ही शेष कर्मों का क्षय करके तुरंत ही मोक्ष में जाए वैसे, अथवा किसी केवली जीव को भरतादिकक्षेत्रमेंसे उठाकर, दुश्मनदेव समुद्रमें फेंके और इतने में आयुष्य का अन्त आया हो और यदि मोक्षमें जाए ऐसे, इन दोनों प्रकारसे मोक्षमें जानेवाले जीव एक समयमें दो ही जाए। ____ अब शेष जलाशयोंमेंसे-उन गंगादि नदियोंमें तथा द्रहादिक जलस्थानोंमें स्नान आदि हेतु गए जीव, जहाजादिकमें बैठे हों वैसे जीव किसी भी विशुद्ध और उत्तम निमित्तसे वहीं केवलज्ञान पाकर मोक्षमें जाए तो एक ही समयमें तीन (मतांतरसे चार) सिद्ध होते हैं ! [ 273] ____अवतरण-पूर्वोक्त मनुष्य किस गतिसे आये एक समयमें कितने मोक्षमें जाए ? यह कहते हैं और साथ ही [ वेद-गति-से आए हुओंके भेदके विना ] प्रथम ओघसे-सामान्यतः चारों गति आश्रयी बताते हैं। तत्पश्चात् ढाई गाथा पदसे विशेष स्पष्ट करके बताएँगे। 412. अवसर्पिणी के चौथे आरा के बदलेमें तीसरे आरे में ही श्री ऋषभदेवप्रभु 108 जीवों के साथ मोक्ष में गये ऐस / उल्टा बननेसे ही इसे आश्चर्य माना गया है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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