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________________ * भिन्न शरीर अवगाहना तथा स्थानाश्रयी सिद्ध संख्या. * 99. अवतरण-भिन्न भिन्न शरीर अवगाहना तथा स्थानाश्रयी सिद्ध होती संख्या जणाते हैं। गुरु लहु मज्झिम दो चउ. अट्ठसयंउड्ढऽहोतिरिअलोए / चउबावीसहसयं, दु समुद्दे तिन्नि सेस जले // 273 // गाथार्थ-विशेषार्थवत् / / 273 // विशेषार्थ-उत्कृष्ट अवगाहनावाले जीव, उस उस काल में पांच सौ धनुष की ऊंची कायावाले जीव, एक समय में युगपत् दो ही संख्या में मोक्ष में जाते हैं, परंतु उससे अधिक नहीं जाते / साथ ही जघन्यसे दो हाथ की अवगाहना तक के जीव ही मुक्ति के योग्य हैं / दो हाथसे न्यून देहवाले तद्भव में मुक्ति योग्य नहीं होते, अतः उस जघन्य अवगाहनावाले जीवो एक समय में अधिकाधिक चार संख्या तक सिद्ध हो सकते हैं, जब कि जघन्य दो हाथसे आगे तथा 500 धनुष के अंदर ( अर्थात् जघन्य उत्कृष्ट के बीच ) की मध्यम अवगाहनावाले उत्कृष्ट से एक ही समय में 108 सिद्ध हो सकते हैं। ऊर्ध्वलोक से एक समय में उत्कृष्टा चार ही सिद्ध होते हैं। यहाँ ऊर्ध्वलोकसे देवनिकाय नहीं समझना परंतु एक लाख योजन ऊँचे ऐसे मेरुपर्वत पर आये नंदनवनमें से जानेवाले समझना, अर्थात् कोई लब्धिधारी विद्याधरादि मुनि, वैक्रियादि गमनशक्ति के द्वारा नंदनवन पर रहे श्री जिनचैत्यादिक को नमस्कारादि करने के हेतु गये हों और उस समय पर उनका आयुष्य पूर्ण होने का प्रसंग आ गया हो, इसलिए वे महात्माएँ अनशनादिक तपपूर्वक शुभध्यानाराधना करनेपूर्वक केवलज्ञान पाकर, अष्टकर्म का क्षय करके मुक्ति प्रायोग्य बनकर कालधर्म प्राप्त करें तब वे वहाँसे सीधे ही मोक्ष में जाते हैं, उस अपेक्षा से सोचना / यहाँ ऊर्ध्वलोक में भेद कर के सोचने पर * पांडुकवनाश्रयी दो मोक्ष में जाते हैं / - इस तरह अधोलोक में एक समय में उत्कृष्ट से बोईस मोक्ष में जाते हैं / यहाँ - 411. यहाँ अधोलोककी संख्यामें दूसरे दो मत हैं / संग्रहणीका एक मत जोडने पर तीन मत होते हैं। संग्रहणी के सिवाय दूसरे जो दो मत हैं वे. 1. उत्तराध्ययनका और 2. सिद्धप्राभूतग्रन्थका / उत्तराध्ययनके जीवाजीव विभक्ति अध्ययनमें 'बीसमहेतहेवेति' इस पाठसे 20 संख्या ग्राह्य होती है / जबकि सिद्धप्राभृत में 'बीसपुहुत्तं अहोलोए'-एतत्टीका च विंशतेः पृथक्त्वं द्वे विंशती / यहाँ पृथक्त्वका अर्थ दो किया अतः दो बार बीस (और एक बीस ) अर्थात् 20 + 20 = 40 की संख्या हुई / यह बात श्री चन्द्रिया टीकाकारने तथा श्री मलयगिरिजी (संग्रहणी के) टीकाकारने बताई है। इसमें चन्द्रिया टीकाकार श्री देवभद्रसूरिजी कहते हैं कि-इस संग्रहणी गाथा में चउबावीससट्टसयम् पदमें चउद्दोवीससटुसयम् यह पाठ रक्खा जाए तो ऊपर के दोनों मतों का समाधान हो जाए, मात्र एक श्री उत्तराध्ययन का ही मत अलग रहता है / इस तरह दो ही मतांतर रहते हैं /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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