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________________ 48 ] बृहत्संग्रहणीरत्न हिन्दी [ गाथा 2 हीन होते जाते हैं, जब कि उत्सर्पिणीके प्रथम आरेमें दिनप्रतिदिन वर्ग-गन्धादि-रस-स्पर्श, आयुष्य, संघयण, संस्थानादिमें क्रमसे शुभत्वकी वृद्धि होती जाती है। .. यह आरा सभी प्रकारके कालभेदोंके आद्य समय पर ही प्रारंभ होता है, अतः प्रथम उत्सर्पिणी, पश्चात् अवसर्पिणी ऐसा क्रम वर्तित है / / - 2. दुःषम आरा-इस आरेमें दुःख होता है परन्तु अतिशय दुःखका अभाव होता है। अवसर्पिणीका पांचवाँ आरा और उत्सर्पिणीका दूसरा आरा बहुत-सी बातों में समानता रखता है। इस आरेके प्रारम्भमें 'पुष्करावर्तमहामेघ' मूसलाधार सात दिन तक अखण्ड बरसता है, और उसकी शीतलतासे पृथ्वी पर सभी महात्माओंको अत्यन्त शान्ति पैदा होती है। उसके बाद 'क्षीरमहामेघ' सात दिन तक अखण्ड बरसकर जमीनमें शुभ वर्ण: . गन्ध-रस-स्पर्शादि उत्पन्न करता है। उसके बाद 'घृतमेघ' सात दिन बरसकर पृथ्वीमें स्निग्धता उत्पन्न करता है। तत्पश्चात् 'अमृतमेघ' भी उतने ही दिनों तक गरजके साथ बरसकर औषधियोंके और वृक्ष-लताओंके अंकुरोंको उत्पन्न करता है / तत्पश्चात् 'रसमेघ' सुन्दर रसवाले जलकी वृष्टि सात दिन तक करके वनस्पतियों में तिक्तादि पांच प्रकारके रसोंको उत्पन्न करता है। इस तरह सम्पूर्ण भरतक्षेत्रमें एकसाथ बरसते मेघसे अनेक प्रकारकी वनस्पतियाँ अनेक प्रकारसे सुन्दर-सुन्दर रीतिसे खिलती हैं और पृथ्वी रसकससे भरपूर बन जाती है। [अवस०के छठे आरेके अन्तमें यद्यपि सर्व वस्तुओंका विनाश कहा है किंतु बीजरूप अस्तित्व तो सर्वका रहता ही है। ] इस मेघके बरस चुकनेके बाद सभी बिलवासी जन बिलसे बाहर निकलकर अत्यन्त हर्षित होते हुए भाँतिभाँतिकी सुन्दर वनस्पति आदिकी लीलाओंका अनुभव पाकर परस्पर एकत्र होकर " अबसे हमें दारुण दुर्गतिके हेतुरूप मांसाहारको छोड़कर वनस्पत्यादिकका आहार करना चाहिये” इत्यादि विविध नियम बनाते हैं। यह आरा अवसर्पिणीके पाँचवें आरेके समान होनेसे इसमें आयुष्य बढ़कर 130 वर्षका होता है। संघयग, संस्थान, शरीरको ऊंचाई आदि सर्व क्रमानुसार वृद्धिमय होते हैं ऐसा समझें / 3. दुःषम-सुषम आरा-जिसमें दुःख अधिक, सुख कम हो वह / दूसरे आरेके 21000 वर्ष बीतनेके बाद तीसरा आरा प्रवर्त्तमान होता है। इस आरेमें आयुष्य बढ़ते बढ़ते तीसरे आरेके अन्तमें पूर्व करोड़ वर्ष प्रमाण और मनुष्योंकी ऊँचाई 500 धनुषोंकी होती है। इस आरेके मनुष्योंको अनुकूल सामग्री पाकर सिद्धिगमन-मोक्ष प्राप्त करना हो तो कर सकनेका सिद्धि-मार्ग खुला रहता है / यह आरा अवसर्पिणीके चौथे आरेके समान होनेसे सभी भाव उस प्रकारके समझें / इस आरेमें सर्व नीतिकी शिक्षा, शिल्पकलादि सर्व व्यवहारोंको जिनेश्वर प्रवर्तित नहीं करते, परन्तु लोग उस प्रकारकी व्युत्पन्नबुद्धिवाले 77. मूमलके जैसी विष्कम्भवाली धारा /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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