SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 458
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62. * श्री बृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . . __अवतरण-अध्यवसायाश्रयी गति कहकर अब संघयणाश्रयी गति को कहते हैं साथ ही नरक में कितनी लेश्या हो? यह भी बताते हैं। दो पढमपुढवीगमण, छेवढे कीलि आइ संघयणे / इकिक्क पुढविवुड़ ढी, आइतिलेसा उ नरएसु // 255 // गाथार्थ-छेवट्ट संघयणवाला पहली दो पृथ्वी तक गमन करता है, बाद के कीलिकादि संघयण में एक एक पृथ्वी की वृद्धि करें / प्रथम के तीन नरक में आदि तीन लेश्याएँ होती हैं। / / 255 // विशेषार्थ-छेवढ अथवा तो सेवा संघयण के बलवाले जीवों का पहले और दूसरे. इन दो 375 नरकों में गमन हो सकता है। कीलिका संघयणवाले का पहले से लेकर तीसरे तक, अर्धनाराचसंघयणवाले का यावत् चौथे तक, नाराचसंघयणवाले यावत् पाँचवें तक, ऋषभनाराचसंघयणवाले यावत् छठे तक और वज्रऋषभनाराच संघयणवाले यावत् सातवें नरक तक भी जाते हैं। __उक्त संघयणवाले शुभ प्रवृत्ति करनेवाले हाँ तो, शुभ अध्यवसायके योग से उत्तरोत्तर देवादिक उत्तम गति को भी प्राप्त करें और प्रथम संघयणवाले तो उत्कृष्ट आराधना के योग से मोक्ष में भी चले जाएँ, जबकि वे ही अगर अशुभ प्रवृत्ति करें, तो उत्तरोत्तर अशुभस्थान को पाते ही प्रथम संघयणवाले भवांतर में सातवें नरक में भी जाने के योग्य बनते हैं। यह तो संघयण द्वारा नरकगति आश्रयी उत्कृष्ट गति कही। ___अब जघन्य से तो, सारे संघयणवाले, मन्द अध्यवसाय के योग से रत्नप्रभा के प्रथम प्रतर में उत्पन्न होते हैं और मध्यम अध्यवसायवाले जघन्य से आगे और उत्कृष्ट उपपात से अर्वाक् (पहले अर्थात् मध्य में ) उत्पन्न होते हैं। सातों नरक में समुच्चयमें प्रथम की कृष्ण-नील-कापोत ये तीन अशुभ लेश्या होती हैं, क्योंकि वे महादुर्भागी जीवों महामलिन अध्यवसायवाले होते हैं। [ 255] अवतरण-अब वे तीन लेश्याएँ कहाँ ? किन्हें ? कौन कौनसी लेश्याएँ होती हैं यह बताते हैं। दुसु काऊ तइयाए, काऊ नीला य नील पंकाए। धूमाए नीलकिण्हा, दुसु किण्हा हुंति लेसा उ // 256 // 379 वर्तमान में छेवडा संघयण का मन्दबल होने से अध्यवसाय मी अति क्रूर न होने से. मुख्यतया मन्दानुभाववाले होने से वर्तमान जीव ज्यादा से ज्यादा दो नरक तक जाते हैं।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy