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________________ 44 ] वृहत्संग्रणीरत्न हिन्दी [ गाथा 5-6 यह मार्ग चौथे आरेमें चालू रहा। प्रथम तीर्थकरके सिवा ७°श्री अजितनाथ प्रमुख 23 तीर्थकर इस चौथे आरेमें ही मोक्षमें गये हुए हैं और उस उस अवसर्पिणीमें होनेवाले 24 तीर्थंकरोंमेंसे 23 तीर्थकरोंका तो इस कालमें ही सिद्धि गमन होता है। . . साथ ही प्रथम चक्रवर्ती श्री भरतमहाराज तीसरे आरेमें हुए हैं और शेष 11 चक्रवर्ती, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव, 9 बलदेव ये सर्व चतुर्थ आरेमें उत्पन्न हुए हैं। ये सब 63 शलाका पुरुष कहलाते हैं / इन शलाका पुरुषों के सिवा जो नव नारद, ग्यारह रुद्र आदि विशिष्ट पुरुष हुए हैं वे भी चतुर्थ आरेमें हुए हैं। इस अवसर्पिणीमें ही इस तरह हुआ है ऐसा नहीं, परंतु जिस तरह इस अवसर्पिणीके तीसरे और चौथे आरेमें जितने तीर्थकर, चक्रवर्ती आदि महान् पुरुष होते हैं, उतने ही प्रत्येक अवसर्पिणीमें समझना। 5. "दुःषम-जिसमें केवल दुःख हो वह / यह दुःषम आरा 21000 वर्ष वर्ष तक रो-रोकर, माताकी आँखोंमें परदे आ गये / इतनेमें वे ही प्रभु चार घातिकर्म क्षीण कर केवलज्ञान प्राप्त करके जिस नगरमें माता रहती है उसी नगरके बाहर पधारे। देवोंने प्रवचनके लिये समवसरण-सिंहासनकी रचना की, उस समय पौत्र-प्रेरणा होनेसे मरुदेवा माता अपने पुत्रकी समवसरणकी ऋद्धि देखने वन्दनार्थे हाथीके पीठ पर बैठकर नगरके बाहर आई, वहाँ आते ही प्रभुके प्रबल अतिशय प्रभावसे और उसके हर्षानन्दसे आँखोंके परदे शीघ्र ही दूर हो गये, पुत्रकी साक्षात् ऋद्धिका निरीक्षण करते हुए अत्युत्तम भावनाके योगमें ही अंतकृत केवली हुए और वहीं मोक्षगमन हुआ / सचमुच भावनायोगकी महिमाका वर्णन करते हुए कलिकालसर्वज्ञ भगवान् श्री हेमचन्द्रसूरि योगशास्त्रमें ठीक ही कहते हैं कि पूर्वमप्राप्तधर्माऽपि परमानन्दनन्दिता / योगप्रभावतः प्राप मरुदेवा परं पदम् // 70. एतस्यामवसर्पिण्यामृषभोऽजितशंभवौ / अभिनन्दनः सुमतिस्तः पद्मप्रभाभिधः // सुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्च सुविधिश्चायशीतलः / श्रेयांसो वासुपूज्यश्च विमलानन्तधर्मतीर्थकृत् // धर्मः शान्तिः कुन्थुररो मल्लिश्च मुनिसुव्रतः / नमिनेमिः पार्थो वीरश्चतुर्विंशतिरहंताम् / / 3 // इसी तरह उत्सर्पिणीमें भी 24 तीर्थंकरादि होते हैं / इस तरह दोनों कालमें अनादि कालसे तीर्थ करादि शलाका पुरुषोंकी उत्पत्ति चली आई है और चलेगी, सिर्फ उस उस कालके शलाका-पुरुष अलग अलग नामवाले होते हैं। ____71. इस कालमें वीरनिर्माणसे अमुक वर्षके बाद कलंकी नामका राजा होनेवाला है। जो महाअधर्मी, महापापी, महाघातकी और समग्र पृथ्वीके नगर-ग्राम, सबको उखाड़कर फेंकता हुआ लोगोंको हेरान-परेशान करेगा। यहां तक कि साधुओंसे भी कर माँगेगा, इस त्राससे त्रस्त साधु तथा श्रावक जब इन्द्रमहाराजका आराधन करेंगे तब संतुष्ट बना हुआ इन्द्र इस पृथ्वी पर वृद्धब्राह्मणके रूपमें आकर कलंकीको मारकर उसके पुत्र दत्तको गद्दी देगा, तत्पश्चात् पुनः सर्वत्र शांति फैलेगी। कलंकी एक ही पैदा हाता है या अनेक ? कलंकी हुआ या अब होगा ? आदि बातोंमें इतिहासविद् भिन्न-भिन्न मत रखते हैं, इसलिए विशेष स्पष्टीकरण तद्विदोंसे जान लें।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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