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________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * .35 करके, उसे चार की संख्या से गुनकर स्वनरकप्रतर संख्या जितने इन्द्रकावासों को प्रक्षेपने से (फिर से ऊपर से मिलाने से) प्रत्येक नरक में इष्ट संख्या प्राप्त होती है। सामान्य गणित में भी अनेक तरीके मिलते हैं ] [234] // प्रासंगिक आवासों का स्वरूप-परिशिष्ट नं. 7 // विशेष बात-यहाँ ग्रन्थकार ने वृत्त-त्रिकोणादि आवाससंख्या-प्राप्तिकरण, आवलिकाप्रविष्ट अथवा पुष्पावकीर्ण का विमानवत् अंतर-द्वार संख्या-संस्थानादि वर्णन लिखा नहीं है, परन्तु उपयोगी होने से ग्रन्थान्तर से उद्धृत कर नीचे दिया जाता है / . ोण इत्यादि का प्रति प्रतर पर संख्याकरण-सातों नरक में प्रत्येक प्रतर पर वृत्त-त्रिकोण (त्रिभुज) तथा चौकोन नरकावासों की संख्या आपको अगर जाननी हो तो वैमानिकनिकाय में बताया गया वृत्तादिकरण यहाँ योजना / 1. इसका मतलब यह कि यहाँ दिशा तथा विदिशा में पंक्तियाँ होने के कारण एक दिशा की तथा एक विदिशा की इस प्रकार दो पंक्तियों को लें। इसके बाद दोनों की आवास संख्या को तीन भागों में बाँट दें। और ऐसा करने से यदि शेष संख्या एक की बचे तो त्रिकोण में और दो बच जाय तो एक त्रिकोण में और दूसरी चौकोन में मिला दें। बाद में दोनों पंक्तिवर्ती अलग-अलग रूप से वृत्त-त्रिकोण और चौकोन संख्या को इकट्ठी करके उस संख्या का समास करके अर्थात् उन्हें एक साथ मिलाकर उसे चार से गुने [अथवा दिशा- विदिशा की संख्या को प्रथम अलग निकालनी हो तो चार-चार पंक्तियों की भिन्न-भिन्न संख्याओं को चार की संख्या से गुनें / ] जिसके कारण प्रथम प्रतर पर दिशा-विदिशा की एकत्रित हुई [अथवा दिशा-विदिशा की पृथक्-पृथक् ] वृत्तादि आवाससंख्या प्राप्त होती है। उदाहरण के तौर पर रत्नप्रभा की दिशागत पंक्ति की 49 की संख्या को तीन हिस्सों में बाँटने से 16-16-16 और शेष में (आवास) 1 बचता है, उस शेष को त्रिकोण में मिला देने से 17-16-16 संख्या बनती है। अब विदिशागत पंक्ति की कुल 48 की संख्या को तीन हिस्सों में बाँटने पर 16-16-16 संख्या बनती है। अब उस में दिशागत पंक्ति की आयी हुई संख्या को क्रमशः यथासंख्य रूप मिलाने से 33 त्रि०, 32 चौ० तथा 32 वृत्त की संख्या बनती है। अब चारों पंक्तियों की संख्या लाने के लिए उन्हें चार से गुनने से क्रमशः 132 संख्या त्रिकोण की, 128 चौकोन की तथा 128 वृत्ता की आयी। अब वृत्त की 128 की संख्या में इन्द्रकवृत्त होने से मिलाने पर उसकी 129 वृत्त की संख्या प्रथम प्रतर पर आयी। अब इन्हीं तीनों संख्याओं को एकत्रित करने से 389 की आवलिकागत उक्त संख्या आयेगी। इस प्रकार अन्य प्रतर के लिए यन्त्र देखिए / प्रतिनरकस्थानाश्रयी तथा समग्रनरकाश्रयी त्रिकोणादि संख्या लाने का करण वैमानिकवत् सोचें / अन्य भी करण हैं जिन्हें ग्रन्थान्तर से देख सकते हैं। आवलिक-पुष्पावकीर्ण नरकावासों का विशेष वर्णन नरकावास अंतर-आवलिकादि नरकावासों का परस्पर अंतर (वैमानिकवत् ) संख्य-असंख्य योजन संभवित है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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