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________________ * श्रीबृहत्संग्रहणीरत्न-हिन्दी भाषांतर . %3 मध्य के 47 प्रतर के आवलिकागत नरकावासा की संख्या जानने के लिए यत्र देखिये / आवलिकागत संख्या को छोड़कर शेष संख्या जो रहती है उसे. पुष्पावकीर्ण के प्रति प्रतर पर विचारें / प्रत्येक प्रतर पर पुष्पावकीर्ण की संख्या कितनी होती है ! इस सम्बन्ध में सच्ची हकीकत उपलब्ध हुी नहीं है / इति इष्टप्रतरे आवलिकागतावाससंख्याप्राप्त्युपायः / इस करण के अनुसार समग्र निकायाश्रयी को सोच-विचारने से प्रथम प्रतरवर्ती संख्या को मुख और अंतिम ( 49 वीं) प्रतरवर्ती संख्या को भूमि कहा जाता है। और प्रत्येक नरकाश्रयी को सोचें तो इष्ट नरक की प्रथम प्रतर सख्या जिसे. मुख और . करके मिलनेवाली संख्या को प्रथम प्रतर की संख्या में से कम करने के बाद जो शेष संख्या रहती है इस के उपरान्त दूसरे१६९ अनेक उपाय-करण हैं, जिन्हें ग्रन्थान्तर से देख लेना / [233] अवतरण-पूर्व की गाथा में प्रत्येक प्रतराश्रयी संख्या बताकर अब यह पौनी गाथा, समग्र नरकाश्रयी और प्रत्येक नरकाश्रयी आवलिकागत नरकावास संख्या को जानने का करण बताती है / इस में वैमानिक निकायवत् यहाँ भी ‘मुख तथा भूमि' के द्वारा प्राप्त होती दोनों प्रकार की संख्या बताते हैं / / 369-1. पहले तो पश्चानुपूर्वी पर (अंतिम-४९ वें प्रतर से ऊपर आना वह) भी यह करण ही पूर्वानुपूर्वी के नियमानुसार संख्या जानने के लिए उपयोगी बनता है। . ... 2. साथ ही एक दिशा तथा एक विदिशा इन दोनों की पंक्तिगत संख्याओं को कुल मिलाने के बाद उसे चार की संख्या से गुना करके फिर उस में एक इन्द्रक मिलाने से सर्वत्र प्रतरग्रत आवास संख्या प्राप्त होती है। 3. साथ ही द्वितीय प्रतरों में प्रत्येक प्रतर की मिलती हुई अंक-संख्या में से एक को न्यून (कम) करके मिलनेवाली संख्या को प्रथम प्रतर की संख्या में से कम करने के बाद जो शेष संख्या रहती है वह उस प्रतर पर प्राप्त होती है। 4. इस के अतिरिक्त चौथी रीत से पाँच (5) की संख्या को 'आदि' संज्ञा. 8 की संख्या को 'उत्तर' संज्ञा तथा 49 की संख्या को 'गच्छ' संज्ञा देकर पश्चात् गच्छसंज्ञक तथा उत्तरसंज्ञक संख्याओं को एक साथ गुनने पर आई हुई संख्या में से आदि संज्ञक संख्या कम करने से [ 4948%3D 392-5-389] अंतिम घनसंख्या प्रथम प्रतर पर 389 की प्राप्त होती है। इस प्रकार द्वितीयादि प्रतर पर भी यथायोग्य उपाय हैं। 5. साथ ही पाँचवीं रीति से इष्ट प्रतर की एकदिशि संख्या को आठ गुना करके उनमें से तीन कम करते हुए जो संख्या शेष रहती है उसे आवलिकागत की संख्या समझें / इसके सिवा अनेक करण होते हैं। अधिक जानकारी के लिए 'देवेन्द्रनरकेन्द्र प्रकरण' में देखें /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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