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________________ * नरकगतिविषयक द्वितीय भवनद्वार * .39. * गाथार्थ-इष्ट प्रतर की एक दिशागत संख्या को आठ गुना करके उस में से चार की संख्या कम करने के बाद अवशेष संख्या को एक (इन्द्रक ) सहित करने पर [ इष्टवतर संख्या प्राप्त होती है / ] जिस प्रकार सीमंतक नाम के प्रथम प्रतर पर 389 नरकावास की संख्या और अप्रतिष्ठान नामक अंतिम प्रतर पर पाँच की संख्या प्राप्त होती है / विशेषार्थ-पिछले वैमानिकनिकाय में प्रतिप्रतराश्रयी, समग्र निकायाश्रयी और प्रतिकल्पाश्रयी ये तीनों प्रकार की संख्या [ विभिन्न तरीकों से ] ( 108 वी ) एक ही गाथा से बतायी गयी थी, जब कि यहाँ कही जानेवाली नरकावासा की संख्या 233234 इन दो गाथाओं से कही जायेगी / और वैमानिकनिकाय में तो 'समग्र निकायाश्रयी और प्रतिकल्पाश्रयी' ऐसे दो ही प्रकार की संख्या ग्रन्थकार ने मूल गाथा में बतायी थी और तीसरी 'प्रतिप्रतराश्रयी' विमान संख्या तो ऊपर से बतायी गर्या थी। ____ जब कि यहाँ पर इन नरकावासाओं की प्रति प्रतर संख्या को भी ग्रन्थकार स्वयं ही मूल गाथा में कहेंगे / क्यों कि विदिशा की पंक्तियाँ अधिक संख्या में होने के कारण प्रति प्रतर संख्या को जानना यहाँ अति कठिन है; अतः यहाँ प्रतिप्रतराश्रयी, समग्रनरकाश्रयी और प्रतिनरकाश्रयी यों तीन प्रकार से नरकावास संख्या कहते हैं। इन में यह गाथा 'प्रतिप्रतराश्रयी' संख्या को जो बताती है, वह इस प्रकार है - इष्ट नरक के इष्ट प्रतर के लिए संख्या प्राप्ति का उदाहरण एवं दष्टांत-यदि रत्नप्रभा पृथ्वी के इष्ट प्रथम सीमंतप्रतर की संख्या निकालनी हो तो वहाँ एक दिशागत पंक्ति के नरकावास की संख्या जो 49 है, उसे आठ से गुना करने से 392 होते हैं / [ अब विदिशा में दिशा की अपेक्षा से एक-एक आवास कम होने के कारण ] चारों विदिशाओं की चार संख्या को कम करने से दिशा-विदिशा के नरकावासाओं की कुल संख्या 388 आती है, इस में एक प्रतरवर्ती निकालने से उसी प्रतर की एक इन्द्रक नरकावास संख्या मिलाने से 389 की कुल संख्या इष्ट ऐसे प्रथम प्रतर पर आती है / इस प्रकार द्वितीयादि प्रतर पर करते-करते ( तथा संख्या को जानते ) जब अप्रतिष्ठान नरकावास पर पहुँचते हैं तब पाँच की कुल संख्या आती है, क्योंकि वहाँ एक-एक दिशावर्ती एक-एक नरकावास होने के कारण एक की संख्या को करण के नियमानुसार आठ से गुनने से 8 आते हैं, इन में से विदिशा के चार कम करने से शेष चार बचे रहते हैं, इन में इन्द्रकनरकावासा मिलाने से पाँच की कुल प्रतर संख्या आ मिलती है /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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