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________________ , नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * * 17 . समाधान-ये परमाधामी अपने पूर्व भव में क्रूर कर्मी, संक्लिष्ट अध्यवसायी, पापकर्म में ही आनंद का अनुभव करनेवाले होने से पंचामिरूप मिथ्या कष्टवाले जन्मान्तर के अज्ञान कायकष्टो, अज्ञानतप आदि धर्मों के फल स्वरूप इतनी आसुरी विभूति को प्राप्त करते हैं / वहाँ दूसरों को दुःख देने का ही उनका स्वभाव होने के कारण वे उक्त वेदनाएँ देते है। जिस प्रकार यहाँ मनुष्यलोक में सर्प, कुक्कुट, वर्तक (नर बटेर पक्षी), लावक (लवा पक्षी ) इत्यादि पंछियों को तथा हाथी, भैसे, परस्पर विरोधी तथा मुक्के बाजों ( Boxers ) जो द्वन्द्व युद्ध करते समय आमने-सामने प्रहार करते हुए देखकर राग-द्वेष से पराभव पानेवाले पापानुबन्दी पुण्यवान् मनुष्यों को जिस प्रकार बहुत आनंद मिलता है, उसी प्रकार सभी परमाधामी भी नारकी जीवों को एक-दूसरे पर गिरते और प्रहार करते देखकर अत्यंत खुश होते हैं और आनंद के अतिरेक में तालियाँ बजाकर अट्टहास करते हैं, वस्त्र उछालते हैं तथा धरती पर हाथ पटकते हैं, क्योंकि ऐसा आनंद तो उन्हें देवलोक में नाटकादि देखने पर भी मिलता नहीं है / ऐसे ये देव अधम कोटिके आनंद में राचनेवाले होते हैं। यद्यपि अपने पापों के फलस्वरूप ही नारकों को ये देव दुःख देते हैं. लेकिन दुःख दे देकर ही अपनी आत्मा को उस में लीन करके बड़े खुश होते हैं, बड़े आनंद के साथ उस में डूबे रहते हैं तथा उन्हें मारकर अति आनंद पाते हैं; अतः महा * पापी-निर्दय ऐसे ये देव महाकर्म बाँध कर अंडगोलकादि के समान अधम स्थानों में उत्पन्न होते हैं / // इति प्रकीर्णवर्णनं समाप्तम् / / कठिनाई से एक साल तक चलाते ही रहे फिर भी उन्हीं जलचरों की हड्डियाँ थोडी-सी भी टूटती नहीं है, ऐसे भयंकर दुःख को बर्दाश्त करते-करते एक वर्षान्तपर वे अवसान पाते है और मरकर नरक में उत्पन्न होते है / (जैसी करनी, वैसी भरनी।) इसके बाद उनके गुप्त भागों में आयी हुई अंडगोलियों को लेकर रत्न पाने के इच्छुक ये पुरुष चमरी गाय की पूच्छ के बाल से उन अंडगोलियों को गूथकर अपने दोनों कानों पर लटकाकर समुद्र में प्रवेश करते है / इन गोलियों के प्रभाव से उनको कुलीर मत्स्यादि अथवा महामत्स्यादि जंतु हानि करते नहीं है तथा वे समुद्र मे डूबते भी नहीं है / इतना ही नहीं, वे गोलियाँ जल में भी उद्योत मार्गदर्शक बन सकती हैं। इस प्रकार घोर कर्म बाँधकर अंडगोलिक रूप उत्पन्न होकर, ऐसी भयंकर चक्कियों मे पीसकर कठिन दुःखों को भुगतने पडते है / इस प्रकार महान् कर्म बाँधकर वे संसार में भटकते-फिरते रहते है / बृ. सं. 3
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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