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________________ * नरकगतिप्रसंग में प्रथम स्थितिद्वार * * 13 * इसी कारण समझदारी (बुद्धि, प्रज्ञा) के घर में सम्यग्दृष्टिवान् आत्मा निवास करती होने से उसे ही अधिक दुःख या कष्ट को बरदाश्त करना पडता है / इस लिए तो हम व्यवहार में भी यही बोलते हैं कि 'चतुर को चिन्ता, मूर्ख को क्या ?' ठीक इसी प्रकार 'ज्ञानी को ही सभी उपाधि ! अज्ञानी को क्या ?' यह बात यहाँ लागू पडती है / और इसी कारण ही मिथ्यादृष्टिवालों से अधिक सम्यग्दृष्टिवालों को मानसिक चिन्ता रहती हैं, जब कि मिथ्यादृष्टिवालों को कम चिंता रहती है / लेकिन सम्यग्दृष्टिवालों के पास दूसरों द्वारा दिये गये दुःखों सम्बन्धी तात्त्विक विचार होने से स्वयं दुःख बरदाश्त कर लेंगे, परंतु बदला (प्रतिकार) लेने के लिए सामनेवाले व्यक्ति को दुःख नहीं देंगे। इसी कारण उसे ( मिथ्यादृष्टिवालों से ) कम दुःख और कम कर्म बंद लगेगा, जब कि मिथ्यादृष्टिवालों के पास वैसी विचारधारा न होने के कारण वे क्रोधित होकर-सामनेवालों को मारकर-स्वयं दुःखी होकर दूसरों को भी दुःख पहुँचायेंगे / इसी कारण वे अधिक दुःखी तथा कर्मबंदी बनते है / लेकिन मानसिक दुःख की अपेक्षा सम्यग्दृष्टिवान् अधिक दुःखी होते हैं / वे दुर्गति के कटु विपाक को देखकर जन्मान्तर में की गई पापवृत्तियों का भारी अफसोस करते हैं। जिस प्रकार कोई एक कुत्ता नामान्तर के अथवा अन्य विभाग के इवानों को देखकर अत्यंत क्रोधित बनकर भौंकने-लडने लगता है तथा परस्पर पगादिकका प्रहार शुरु कर देते हैं, ठीक उसी तरह नारक जीव भी विभंग ज्ञान के बल से एक दूसरे को देखकर आँखें नीली-पीली करते हुए श्वानकी तरह वैक्रिय समुद्दघात से महा भयावह रूपों को धारण करके अपने-अपने नरकावास में क्षेत्रानुभाव जनित पृथ्वी परिणामरूप लोहमय त्रिशूल, शिला, मुद्दगर भाला, तोमर, असिपट्ट, खडग, यष्टि, परशु इत्यादि वैक्रिय जाति के शस्त्रों से तथा अपने हाथ पैर या दाँतों द्वारा परस्पर युद्ध-प्रहार करते हैं, जिसके कारण घायल होकर या विकृत रूपवाले होकर वे कसाईवाडे में पड़े हुए किसी भैंसे (महिष)की तरह महावेदनासे निःश्वास लेते हुए, खून भरे कीचड में लथपथ महा दुःख भुगतते हैं। . इस प्रकार अन्योन्यकृत प्रहरणवेदना समजें। ____ ऊपर बतायी गयी सभी वेदनाएं मुख्यतया शस्त्रप्रहार कृत होने से उनका स्थान प्रारंभ के पाँच नारकी में ही होता है।
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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