SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 408
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * 12. . श्रीनारल-हिन्दी भाषांतर . JP M . इसका नाम है जीव की श्वानवृत्ति ! श्वान अर्थात् कुत्ता--पत्थर फेंकनेवाला कौन है ! उसे न देखते हुए वह पत्थर को ही काटने दौडता है। नतीजारूप उसे कुछ भी मिलता नहीं है, सिवा अपने मुख की पीड़ा बढती है, और फिर वहाँ तो दूसरे पत्थर गिरने लगते हैं। इस प्रकार दुःखों का सिलसिला शुरु हो जाता है। . दूसरे, सम्यगदृष्टि नारकी जो होते हैं, उनकी दृष्टि मिथ्या न होकर सम्यग अथवा सत्-सच्ची-सुंदर बनी होने से उन्हें भेदज्ञान-सच्चा विवेक प्राप्त होता है। परिस्थिति तथा प्रसंगोंके यथातथ्य-सच्चे स्वरूप को अच्छी तरह समझता होने से, उनका साध्य बिन्दु जागृत होने से वह वर्तमान दुःख या उनके साधनों की ओर अप्रीति-अरूचि, रोष या गुस्सा करेगा नहीं, बल्कि यह सोचेगा कि ऐसे प्रतिकूल संयोग उन्हें क्यों प्राप्त हुए ? इस प्रकार उसके मूल की ओर दृष्टि डालेंगे। “जन्मान्तर में मैंने ही अपनी अशुभ अनेकविध पापवृत्तियों द्वारा विषैले बीजों को बोया है जिनके नतीजे में ही ये महाकटुफल आज उग आये हैं। इसमें दूसरों का दोष क्या है ? वे तो निमित्तमात्र हैं। उपादान कारण तो मैं स्वयं ही हूँ, इस लिए हाल अपनी ही अशुभ प्रवृत्तियों के इस विपाकों को यथाशक्ति समभावसे भुगत लें / अगर उसी प्रकार तू बरदाश्त करके और समभाव में न रहते हुए विषमभाव धारण करके क्रोध करनेवाले, गालियाँ बोलनेवाले या भयंकर हमलेवरोंपर बार-बार क्रोधित बनेंगे या उनका मुकाबला करेंगे तो ऐसे अति संक्लिष्ट नतीजों से पुनः जहरके बीज बोए जायेंगे और पुनः इसके नये विषैले फल पैदा होंगे जिनका पुनः भोग तुम्हें करना पडेगा / इस प्रकार दुःखोंका सिलसिलायुक्त विषचक्र घूमता ही रहेगा / दुःखोंके सिलसिले का अंत नहीं आयेगा और सच्ची आत्मिक शांति दूर सुदूर हटती भी जायेगी। इस लिए चेतन ! अपने आप का स्वभावधर्म सोच" / ऐसे विचारों से सम्यग्दृष्टि स्वयं जागृत बनती है जिसके फलस्वरूप वहाँ मार, कूट, भेदन तथा छेदन इत्यादिमें उचित संयम रखती है / वह पाप प्रवृत्तियोंको हेयरूप मानता होने से यहाँ पापाचरणका पश्चात्ताप सदा बना रहता है और ये सभी तर्कवितर्क तभी ही हो सकते हैं जब हमारा मन मूललक्षी बना हुआ होता है। इसका नाम ही है सिंहवृत्ति-अर्थात् प्रवृत्ति के मूल की ओर देखना / शेर के स्वाभावानुसार वह व्याघ्र के घातक तीर की ओर नजर भी नहीं डालेगा, बल्कि जिस दिशा से तीर आयेगा उसी और नजर उठाकर लपक पडेगा जिसकी वजह से दूसरे बानों के प्रहार से वह बच सके /
SR No.004267
Book TitleSangrahaniratna Prakaran Bruhat Sangrahani Sutra
Original Sutra AuthorChandrasuri
AuthorYashodevsuri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1984
Total Pages756
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy